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Saturday, December 1, 2012

इतने ऊँचे उठो


इतने ऊँचे उठो

इतने ऊँचे उठो कि जितना उठा गगन है।

देखो इस सारी दुनिया को एक दृष्टि से
सिंचित करो धरा, समता की भाव वृष्टि से
जाति भेद की, धर्म-वेश की
काले गोरे रंग-द्वेष की
ज्वालाओं से जलते जग में
इतने शीतल बहो कि जितना मलय पवन है॥

नये हाथ से, वर्तमान का रूप सँवारो
नयी तूलिका से चित्रों के रंग उभारो
नये राग को नूतन स्वर दो
भाषा को नूतन अक्षर दो
युग की नयी मूर्ति-रचना में
इतने मौलिक बनो कि जितना स्वयं सृजन है॥

लो अतीत से उतना ही जितना पोषक है
जीर्ण-शीर्ण का मोह मृत्यु का ही द्योतक है
तोड़ो बन्धन, रुके न चिन्तन
गति, जीवन का सत्य चिरन्तन
धारा के शाश्वत प्रवाह में
इतने गतिमय बनो कि जितना परिवर्तन है।

चाह रहे हम इस धरती को स्वर्ग बनाना
अगर कहीं हो स्वर्ग, उसे धरती पर लाना
सूरज, चाँद, चाँदनी, तारे
सब हैं प्रतिपल साथ हमारे
दो कुरूप को रूप सलोना
इतने सुन्दर बनो कि जितना आकर्षण है॥

- द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी



मेरे जन्मदिन पर by shailjapathak


मेरे जन्मदिन पर  by shailjapathak



अम्मा ने बताया था 
आज के दिन नैनीताल 
के रानीखेत में 
जन्म हुआ मेरा
सबने मेरे होने की 
बधाई की जगह 
आ कर दी थी 
सहानुभूति.. की 
सांवली लड़की हुई

मेरे बड़े और गोरे 
रंग वाले भाई बहन ने 
मुझे मुस्कराकर देखा था

सबसे ज्यादा खुश 
वो दाइ जी हुई थी 
जिसने अम्मा को 
अपने पहाड़ी नुस्खों से 
मुझे गोरा बना देने का 
भरोसा दिया था

खूब सफ़ेद बरफ गिरती थी 
अम्मा कहती वो मुझे 
शाल में लपेट कर रखती 
और कोट पैंट पहने हुए 
मेरे भाई बहन 
कभी कभी छूते मुझे

मैं पहाड़ी गाना सुन 
कर मालिश करावा लेती 
बरफ गिरने को 
टुकटुक कर देखती 
अम्मा के आँख में 
दूसरी लडकी होने की 
मायूसी को भी 
समझती

अम्मा बताती है 
कई बार जब रातें ठिठुरा देती 
मैं आखिरी बार हाथ उठाती 
जरा सी आँख खोल 
अम्मा को एकदम आखिरी बार 
देखती और मैं 
मरते मरते जी जाती

मुझे लगता है मेरे 
अंदर पहाड जीना चाहते थे 
नदियाँ झरने मुझमे 
बहते थे और मैं 
जीना चाहती थी 
ये जिंदगी अपनी 
कविताओं को जिंदा करने 
के लिए ………


Source : Shailja Pathak's Poem

Best एक दिन ऐसा आएगा


एक दिन ऐसा आएगा

माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय । 
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोय ॥


मातृभाषा के प्रति -भारतेंदु हरिश्चंद


मातृभाषा के प्रति -भारतेंदु हरिश्चंद


निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।

अंग्रेज़ी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन।
पै निज भाषाज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।।

उन्नति पूरी है तबहिं जब घर उन्नति होय।
निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ़ सब कोय।।

निज भाषा उन्नति बिना, कबहुँ न ह्यैहैं सोय।
लाख उपाय अनेक यों भले करो किन कोय।।

इक भाषा इक जीव इक मति सब घर के लोग।
तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग।।

और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात।
निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात।।

तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय।
यह गुन भाषा और महं, कबहूँ नाहीं होय।।

विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार।
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार।।

भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात।
विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात।।

सब मिल तासों छांड़ि कै, दूजे और उपाय।
उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय।। 

-भारतेंदु हरिश्चंद्र



चारु चंद्र की चंचल किरणें

चारु चंद्र की चंचल किरणें


चारु चंद्र की चंचल किरणें,

खेल रहीं थीं जल थल में।

स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई थी,

अवनि और अम्बर तल में।

पुलक प्रकट करती थी धरती,

हरित तृणों की नोकों से।

मानो झूम रहे हों तरु भी,

मन्द पवन के झोंकों से।

पंचवटी की छाया में है,

सुन्दर पर्ण कुटीर बना।

जिसके बाहर स्वच्छ शिला पर,

धीर वीर निर्भीक मना।

जाग रहा है कौन धनुर्धर,

जब कि भुवन भर सोता है।

भोगी अनुगामी योगी सा,

बना दृष्टिगत होता है।

बना हुआ है प्रहरी जिसका,

उस कुटिया में क्या धन है।

जिसकी सेवा में रत इसका,

तन है, मन है, जीवन है


कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती

कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती


कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती

लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।

नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है।
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है।
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।

डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है।
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में।
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।

असफलता एक चुनौती है, स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ मत भागो तुम।
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।


पंद्रह अगस्त का दिन कहता


पंद्रह अगस्त का दिन कहता 

पंद्रह अगस्त का दिन कहता -- 
आज़ादी अभी अधूरी है।
सपने सच होने बाकी है, 
रावी की शपथ न पूरी है।।

जिनकी लाशों पर पग धर कर
आज़ादी भारत में आई।
वे अब तक हैं खानाबदोश 
ग़म की काली बदली छाई।।

कलकत्ते के फुटपाथों पर 
जो आँधी-पानी सहते हैं।
उनसे पूछो, पंद्रह अगस्त के 
बारे में क्या कहते हैं।।

हिंदू के नाते उनका दु:ख
सुनते यदि तुम्हें लाज आती।
तो सीमा के उस पार चलो 
सभ्यता जहाँ कुचली जाती।।

इंसान जहाँ बेचा जाता, 
ईमान ख़रीदा जाता है।
इस्लाम सिसकियाँ भरता है, 
डालर मन में मुस्काता है।।

भूखों को गोली नंगों को 
हथियार पिन्हाए जाते हैं।
सूखे कंठों से जेहादी 
नारे लगवाए जाते हैं।।

लाहौर, कराची, ढाका पर 
मातम की है काली छाया।
पख्तूनों पर, गिलगित पर है 
ग़मगीन गुलामी का साया।।

बस इसीलिए तो कहता हूँ 
आज़ादी अभी अधूरी है।
कैसे उल्लास मनाऊँ मैं? 
थोड़े दिन की मजबूरी है।।

दिन दूर नहीं खंडित भारत को 
पुन: अखंड बनाएँगे।
गिलगित से गारो पर्वत तक 
आज़ादी पर्व मनाएँगे।।

उस स्वर्ण दिवस के लिए आज से 
कमर कसें बलिदान करें।
जो पाया उसमें खो न जाएँ, 
जो खोया उसका ध्यान करें।।

- अटल बिहारी वाजपेयी

तलब होती है बावली


तलब होती है बावली

तलब होती है बावली,
क्योंकि रहती है उतावली।

बौड़म जी ने
सिगरेट ख़रीदी
एक जनरल स्टोर से,
और फ़ौरन लगा ली
मुँह के छोर से।

ख़ुशी में गुनगुनाने लगे,
और वहीं सुलगाने लगे।

दुकानदार ने टोका,
सिगरेट जलाने से रोका-

श्रीमान जी!मेहरबानी कीजिए,
पीनी है तो बाहर पीजिए।

बौड़म जी बोले-कमाल है,
ये तो बड़ा गोलमाल है।

पीने नहीं देते
तो बेचते क्यों हैं?

दुकानदार बोला-
इसका जवाब यों है

कि बेचते तो हम लोटा भी हैं,
और बेचते जमालगोटा भी हैं,
अगर इन्हें ख़रीदकर
आप हमें निहाल करेंगे,
तो क्या यहीं
उनका इस्तेमाल करेंगे?

-अशोक चक्रधर



पथ विमुख मत होना


पथ विमुख मत होना

पथ विमुख मत होना , कठिन कंटीली राहों को देखकर।

जीवन में हर एक को इस पथ से गुजरना परता है ।

राहें मंजिल की पथरीली ही हुआ करती है ।

हर ठोकरों से गिरकर संभलना होता है

दिल में तमन्ना है अगर कुछ पाना है तुम्हें ,

समझा लो दिल को तुम अपने ,

की कुछ पाने के लिए कुछ खोना ही पड़ता है।

जिंदगी फूलों की सेज नहीं है , अगर जीना है इसे ,

तो काँटों से भी चलकर सवरना होता है




कालिज स्टूडैंट


 कालिज स्टूडैंट

फ़ादर ने बनवा दिये, तीन कोट छै पैंट 

लल्ला मेरा बन गया, कालिज स्टूडैंट 

कालिज स्टूडैंट, हुये होस्टल में भरती

दिन भर बिस्कुट चरैं, शाम को खायें इमरती

कहँ 'काका' कविराय, बुद्धि पर डाली चादर

मौज़ कर रहे पुत्र, हड्डियां घिसते फ़ादर

- काका हाथरसी

नर हो न निराश करो मन को- मैथिलीशरण गुप्त


नर हो न निराश करो मन को- मैथिलीशरण गुप्त

नर हो न निराश करो मन को
कुछ काम करो कुछ काम करो
जग में रहके निज नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो न निराश करो मन को ।

संभलो कि सुयोग न जाए चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलम्बन को
नर हो न निराश करो मन को ।

जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को ।

निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
सब जाय अभी पर मान रहे
मरणोत्तर गुंजित गान रहे
कुछ हो न तजो निज साधन को
नर हो न निराश करो मन को