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एक व्यक्ति नया-नया ही संन्यासी बना था।
अपने गाँव के बाहर तालाब के किनारे रहने लगा।
एक दिन सो रहा था। सिरहाने ईंट रखी हुई थी।
स्त्रियाँ पानी भरने आई थी। एक ने कहा -
देखो, संन्यासी हुआ तो क्या है ?
सिरहाना लगाने का मोह तो गया ही नहीं। यह
सुनकर उसने ईंट निकाल दी और हाथ
को ही सिरहाना बनाकर सो गया। तब
दूसरी स्त्री ने देखा और बोली - देखो,
कितना आलसी है ? पास में ईंट रखी है और
उसका उपयोग नहीं कर पा रहा है -
दुखी हो रहा है। यह सुनकर उसने ईंट वापिस
लगा ली। तब स्त्रियों ने कहा - कितना कमजोर
है यह संन्यासी। हमारे कहने से ईंट निकालता है
और लगाता है। यह कैसे संन्यासी बनेगा।
यह प्रतिक्रिया का जीवन है, क्रिया का जीवन
नहीं है।...
एक व्यक्ति नया-नया ही संन्यासी बना था।
अपने गाँव के बाहर तालाब के किनारे रहने लगा।
एक दिन सो रहा था। सिरहाने ईंट रखी हुई थी।
स्त्रियाँ पानी भरने आई थी। एक ने कहा -
देखो, संन्यासी हुआ तो क्या है ?
सिरहाना लगाने का मोह तो गया ही नहीं। यह
सुनकर उसने ईंट निकाल दी और हाथ
को ही सिरहाना बनाकर सो गया। तब
दूसरी स्त्री ने देखा और बोली - देखो,
कितना आलसी है ? पास में ईंट रखी है और
उसका उपयोग नहीं कर पा रहा है -
दुखी हो रहा है। यह सुनकर उसने ईंट वापिस
लगा ली। तब स्त्रियों ने कहा - कितना कमजोर
है यह संन्यासी। हमारे कहने से ईंट निकालता है
और लगाता है। यह कैसे संन्यासी बनेगा।
यह प्रतिक्रिया का जीवन है, क्रिया का जीवन
नहीं है।...
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