माँ की ममता (Maa kii Mamta)
जब मैं छोटी बच्ची थी
माँ की प्यारी दुलारी थी,
माँ की प्यारी दुलारी थी,
माँ तो हमको दूध पिलाती
माँ भी कितनी भोली-भाली ।
माखन मिश्री घोल खिलाती
बड़े मजे से गोद में खिलाती,
बड़े मजे से गोद में खिलाती,
माँ तो कितनी अच्छी है
सारी दुनिया उसमें है ।
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चाह नहीं मैं सुरबाला के - Chaha Nahin Mein Surbala Ke (-माखनलाल चतुर्वेदी - Makhanlal Chaturvedi)
चाह नहीं मैं सुरबाला के
गहनों में गूँथा जाऊँ,
चाह नहीं, प्रेमी-माला में
बिंध प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं, सम्राटों के शव
पर हे हरि, डाला जाऊँ,
चाह नहीं, देवों के सिर पर
चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ।
मुझे तोड़ लेना वनमाली!उस पथ पर देना तुम फेंक,
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पर जावें वीर अनेक ।
-माखनलाल चतुर्वेदी
गहनों में गूँथा जाऊँ,
चाह नहीं, प्रेमी-माला में
बिंध प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं, सम्राटों के शव
पर हे हरि, डाला जाऊँ,
चाह नहीं, देवों के सिर पर
चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ।
मुझे तोड़ लेना वनमाली!उस पथ पर देना तुम फेंक,
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पर जावें वीर अनेक ।
-माखनलाल चतुर्वेदी
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सूरज का गोला - भवानीप्रसाद मिश्र (Sooraj Ka Gola - Bhavani Prasad Mishra )
सूरज का गोला
इसके पहले ही कि निकलता
चुपके से बोला, हमसे - तुमसे, इससे - उससे
कितनी चीजों से
चिडियों से पत्तों से
फूलो - फल से, बीजों से-
"मेरे साथ - साथ सब निकलो
घने अंधेरे से
कब जागोगे, अगर न जागे, मेरे टेरे से ?"
इसके पहले ही कि निकलता
चुपके से बोला, हमसे - तुमसे, इससे - उससे
कितनी चीजों से
चिडियों से पत्तों से
फूलो - फल से, बीजों से-
"मेरे साथ - साथ सब निकलो
घने अंधेरे से
कब जागोगे, अगर न जागे, मेरे टेरे से ?"
आगे बढकर आसमान ने
अपना पट खोला
इसके पहले ही कि निकलता
सूरज का गोला
अपना पट खोला
इसके पहले ही कि निकलता
सूरज का गोला
फिर तो जाने कितनी बातें हुईं
कौन गिन सके इतनी बातें हुईं
पंछी चहके कलियां चटकी
कौन गिन सके इतनी बातें हुईं
पंछी चहके कलियां चटकी
डाल - डाल चमगादड लटकी
गांव - गली में शोर मच गया
जंगल - जंगल मोर नच गया
गांव - गली में शोर मच गया
जंगल - जंगल मोर नच गया
जितनी फैली खुशियां
उससे किरनें ज्यादा फैलीं
ज्यादा रंग घोला
और उभर कर ऊपर आया
सूरज का गोला
उससे किरनें ज्यादा फैलीं
ज्यादा रंग घोला
और उभर कर ऊपर आया
सूरज का गोला
सबने उसकी आगवानी में
अपना पर खोला ।
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अपना पर खोला ।
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गाँधीजी के बन्दर तीन (Gandhiji Ke Bandar Theen )
गाँधीजी के बन्दर तीन,
सीख हमें देते अनमोल।
सीख हमें देते अनमोल।
बुरा दिखे तो दो मत ध्यान,
बुरी बात पर दो मत कान,
बुरी बात पर दो मत कान,
कभी न बोलो कड़वे बोल।
याद रखोगे यदि यह बात ,
कभी नहीं खाओगे मात,
कभी नहीं खाओगे मात,
कभी न होगे डाँवाडोल ।
गाँधीजी के बन्दर तीन,
सीख हमें देते अनमोल।
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ज़िन्दगी प्यार की दो चार घड़ी
ज़िन्दगी प्यार की दो चार घड़ी होती है।
ज़िन्दगी है छोटी, हर पल में खुश रहो,आफिस में खुश रहो, घर में खुश रहो....
आज पनीर नही है, दाल में खुश रहो,आज जिम जाने का समय नही, दो कदम चलके ही खुश रहो...
आज दोस्तों का साथ नही, टी०वी० देख के ही खुश रहो...
घर जा नही सकते तो फोन करके ही खुश रहो,आज कोई नाराज़ है, उसके इस अन्दाज़ में खुश रहो...
जिसे देख नही सकते उसकी आवाज़ में खुश रहो
जिस पा नही सकते उसकी याद में खुश रहो.....
बीता हुआ कल जो जा चुका है, उससे मीठी यादें है, उनमें ही खुश रहो.....
आने वाले पल का पता नही।।सपनों मे ही खुश रहो
ज़िन्दगी है छोटी, हर पल में खुश रहो.....
यह मत सोचो कि ज़िन्दगी मे कितने पल है ये सोचो कि....हर पल में कितनी ज़िन्दगी है......
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ज़िन्दगी है छोटी, हर पल में खुश रहो,आफिस में खुश रहो, घर में खुश रहो....
आज पनीर नही है, दाल में खुश रहो,आज जिम जाने का समय नही, दो कदम चलके ही खुश रहो...
आज दोस्तों का साथ नही, टी०वी० देख के ही खुश रहो...
घर जा नही सकते तो फोन करके ही खुश रहो,आज कोई नाराज़ है, उसके इस अन्दाज़ में खुश रहो...
जिसे देख नही सकते उसकी आवाज़ में खुश रहो
जिस पा नही सकते उसकी याद में खुश रहो.....
बीता हुआ कल जो जा चुका है, उससे मीठी यादें है, उनमें ही खुश रहो.....
आने वाले पल का पता नही।।सपनों मे ही खुश रहो
ज़िन्दगी है छोटी, हर पल में खुश रहो.....
यह मत सोचो कि ज़िन्दगी मे कितने पल है ये सोचो कि....हर पल में कितनी ज़िन्दगी है......
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दिन जल्दी-जल्दी ढलता है - हरिवंशराय बच्चन (Din Jaldi Jaldi Dhalta Hai - Harivansh Rai Bachhan)
हो जाय न पथ में रात कहीं,मंज़िल भी तो है दूर नहीं -यह सोच थका दिन का पंथी भी जल्दी-जल्दी चलता है!दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!
बच्चे प्रत्याशा में होंगे,नीड़ों से झाँक रहे होंगे -यह ध्यान परों में चिड़ियों के भरता कितनी चंचलता है!दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!
मुझसे मिलने को कौन विकल?मैं होऊँ किसके हित चंचल? -यह प्रश्न शिथिल करता पद को, भरता उर में विह्वलता है!दिन जल्दी-जल्दी ढलता है
बच्चे प्रत्याशा में होंगे,नीड़ों से झाँक रहे होंगे -यह ध्यान परों में चिड़ियों के भरता कितनी चंचलता है!दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!
मुझसे मिलने को कौन विकल?मैं होऊँ किसके हित चंचल? -यह प्रश्न शिथिल करता पद को, भरता उर में विह्वलता है!दिन जल्दी-जल्दी ढलता है
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कठपुतली~~ भवानीप्रसाद मिश्र~~~
कठपुतली
गुस्से से उबली
बोली - ये धागे
क्यों हैं मेरे पीछे आगे ?
तब तक दूसरी कठपुतलियां
बोलीं कि हां हां हां
क्यों हैं ये धागे
हमारे पीछे-आगे ?हमें अपने पांवों पर छोड दो,इन सारे धागों को तोड दो !
बेचारा बाज़ीगर
हक्का-बक्का रह गया सुन कर
फिर सोचा अगर डर गया
तो ये भी मर गयीं मैं भी मर गया
और उसने बिना कुछ परवाह किए
जोर जोर धागे खींचे
उन्हें नचाया !
कठपुतलियों की भी समझ में आया
कि हम तो कोरे काठ की हैं
जब तक धागे हैं,बाजीगर है
तब तक ठाट की हैं
और हमें ठाट में रहना है
याने कोरे काठ की रहना है~~
गुस्से से उबली
बोली - ये धागे
क्यों हैं मेरे पीछे आगे ?
तब तक दूसरी कठपुतलियां
बोलीं कि हां हां हां
क्यों हैं ये धागे
हमारे पीछे-आगे ?हमें अपने पांवों पर छोड दो,इन सारे धागों को तोड दो !
बेचारा बाज़ीगर
हक्का-बक्का रह गया सुन कर
फिर सोचा अगर डर गया
तो ये भी मर गयीं मैं भी मर गया
और उसने बिना कुछ परवाह किए
जोर जोर धागे खींचे
उन्हें नचाया !
कठपुतलियों की भी समझ में आया
कि हम तो कोरे काठ की हैं
जब तक धागे हैं,बाजीगर है
तब तक ठाट की हैं
और हमें ठाट में रहना है
याने कोरे काठ की रहना है~~
लहर~~~ (~~जयशंकर प्रसाद) Lehar (Jaishankar Prasad)
वे कुछ दिन कितने सुंदर थे ?जब सावन घन सघन बरसते
इन आँखों की छाया भर थे~
सुरधनु रंजित नवजलधर से-भरे क्षितिज व्यापी अंबर से
मिले चूमते जब सरिता के
हरित कूल युग मधुर अधर थे~
प्राण पपीहे के स्वर वाली
बरस रही थी जब हरियाली
रस जलकन मालती मुकुल से
जो मदमाते गंध विधुर थे~
चित्र खींचती थी जब चपला
नील मेघ पट पर वह विरला
मेरी जीवन स्मृति के जिसमें
खिल उठते वे रूप मधुर थे~
~~जयशंकर प्रसाद
वे कुछ दिन कितने सुंदर थे ?जब सावन घन सघन बरसते
इन आँखों की छाया भर थे~
सुरधनु रंजित नवजलधर से-भरे क्षितिज व्यापी अंबर से
मिले चूमते जब सरिता के
हरित कूल युग मधुर अधर थे~
प्राण पपीहे के स्वर वाली
बरस रही थी जब हरियाली
रस जलकन मालती मुकुल से
जो मदमाते गंध विधुर थे~
चित्र खींचती थी जब चपला
नील मेघ पट पर वह विरला
मेरी जीवन स्मृति के जिसमें
खिल उठते वे रूप मधुर थे~
~~जयशंकर प्रसाद
क्या भूलूं, क्या याद करूं मैं? ~~हरिवंशराय बच्चन (Kya Bhooloon Kya Yaad Karoon Mein- Harivansh Rai Bachhan)
क्या भूलूं, क्या याद करूं मैं?
अगणित उन्मादों के क्षण हैं,अगणित अवसादों के क्षण हैं,रजनी की सूनी की घडियों को किन-किन से आबाद करूं मैं!क्या भूलूं, क्या याद करूं मैं!
याद सुखों की आसूं लाती,दुख की, दिल भारी कर जाती,दोष किसे दूं जब अपने से, अपने दिन बर्बाद करूं मैं!क्या भूलूं, क्या याद करूं मैं!
दोनो करके पछताता हूं,सोच नहीं, पर मैं पाता हूं,सुधियों के बंधन से कैसे अपने को आबाद करूं मैं!क्या भूलूं, क्या याद करूं मैं!
~~हरिवंशराय बच्चन
अगणित उन्मादों के क्षण हैं,अगणित अवसादों के क्षण हैं,रजनी की सूनी की घडियों को किन-किन से आबाद करूं मैं!क्या भूलूं, क्या याद करूं मैं!
याद सुखों की आसूं लाती,दुख की, दिल भारी कर जाती,दोष किसे दूं जब अपने से, अपने दिन बर्बाद करूं मैं!क्या भूलूं, क्या याद करूं मैं!
दोनो करके पछताता हूं,सोच नहीं, पर मैं पाता हूं,सुधियों के बंधन से कैसे अपने को आबाद करूं मैं!क्या भूलूं, क्या याद करूं मैं!
~~हरिवंशराय बच्चन
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