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Saturday, May 9, 2015

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महाराणा प्रताप की जयंती पर शत शत नमन एवम शुभकामनायें

महाराणा प्रताप की जयंती पर शत शत नमन एवम शुभकामनायें

महाराणा प्रताप का जन्म संवत 1597 में हुआ था।
9 May 1540
 महाराणा प्रताप का जन्म कुम्भलगढ दुर्ग में हुआ था। महाराणा प्रताप की माता का नाम जैवन्ताबाई था, जो पाली के सोनगरा अखैराज की बेटी थी। महाराणा प्रताप को बचपन में कीका के नाम से पुकारा जाता था। महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक गोगुन्दा में हुआ


हल्दीघाटी का युद्ध
मुख्य लेख : हल्दीघाटी का युद्ध.

यह युद्ध १८ जून १५७६ ईस्वी में मेवाड तथा मुगलों के मध्य हुआ था। इस युद्ध में मेवाड की सेना का नेतृत्व महाराणा प्रताप ने किया था। इस युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से लडने वाले एकमात्र मुस्लिम सरदार थे -हकीम खाँ सूरी।

इस युद्ध में मुगल सेना का नेतृत्व मानसिंह तथा आसफ खाँ ने किया। इस युद्ध का आँखों देखा वर्णन अब्दुल कादिर बदायूनीं ने किया। इस युद्ध को आसफ खाँ ने अप्रत्यक्ष रूप से जेहाद की संज्ञा दी। इस युद्ध में बींदा के झालामान ने अपने प्राणों का बलिदान करके महाराणा प्रताप के जीवन की रक्षा की।

महाराणा उदयसिंह की मृत्यु के पश्चात जब प्रतापसिंह गद्दी पर बैठे, भारत के बड़े भूभाग पर मुगल बादशाह अकबर का शासन था। बड़े-बड़े राजा महाराजाओं ने अकबर की आधीनता स्वीकार कर ली थी। वीरों की भूमि राजस्थान के अनेक राजाओं ने न केवल मुगल बादशाह की दासता स्वीकार की अपनी बहू बेटियोें की डोली भी समर्पित कर दी थी। महाराणा प्रताप इसके प्रबल विरोधी थे। उन्होंने मेवाड़ की पूर्ण स्वतन्त्रता का प्रयास जारी रखा और मुगल सम्राट के सामने झुकना कभी स्वीकार नहीं किया। अनेक बार अकबर ने उनके पास सन्धि के लिए प्रस्ताव भेजे और इच्छा व्यक्त की कि महाराणा प्रताप केवल एक बार उसे बादशाह मान ले लेकिन स्वाभिमानी प्रताप ने हर प्रस्ताव को ठुकरा दिया


यह थी कहानी -

अकबर के महासेनापति राजा मानसिंह, शोलापुर विजय करके लौट रहे थे। उदय सागर पर महाराणा ने उनके स्वागत का प्रबन्ध किया। हिन्दू नरेश के यहाँ भला अतिथि का सत्कार न होता, किंतु महाराणा प्रताप ऐसे राजपूत के साथ बैठकर भोजन कैसे कर सकते थे, जिसकी बुआ मुग़ल अन्त:पुर में हो। मानसिंह को बात समझने में कठिनाई नहीं हुई। अपमान से जले वे दिल्ली पहुँचे। उन्होंने सैन्य सज्जित करके चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया।

प्रताप और जहाँगीर का संघर्ष

हल्दीघाटी के इस प्रवेश द्वार पर अपने चुने हुए सैनिकों के साथ प्रताप शत्रु की प्रतीक्षा करने लगे। दोनों ओर की सेनाओं का सामना होते ही भीषण रूप से युद्ध शुरू हो गया और दोनों तरफ़ के शूरवीर योद्धा घायल होकर ज़मीन पर गिरने लगे। प्रताप अपने घोड़े पर सवार होकर द्रुतगति से शत्रु की सेना के भीतर पहुँच गये और राजपूतों के शत्रु मानसिंह को खोजने लगे। वह तो नहीं मिला, परन्तु प्रताप उस जगह पर पहुँच गये, जहाँ पर 'सलीम' (जहाँगीर) अपने हाथी पर बैठा हुआ था। प्रताप की तलवार से सलीम के कई अंगरक्षक मारे गए और यदि प्रताप के भाले और सलीम के बीच में लोहे की मोटी चादर वाला हौदा नहीं होता तो अकबर अपने उत्तराधिकारी से हाथ धो बैठता। प्रताप के घोड़े चेतक ने अपने स्वामी की इच्छा को भाँपकर पूरा प्रयास किया और तमाम ऐतिहासिक चित्रों में सलीम के हाथी के सूँड़ पर चेतक का एक उठा हुआ पैर और प्रताप के भाले द्वारा महावत का छाती का छलनी होना अंकित किया गया है।[4] महावत के मारे जाने पर घायल हाथी सलीम सहित युद्ध भूमि से भाग खड़ा हुआ।


राजपूतों का बलिदान - झाला सरदार

इस समय युद्ध अत्यन्त भयानक हो उठा था। सलीम पर प्रताप के आक्रमण को देखकर असंख्य मुग़ल सैनिक उसी तरफ़ बढ़े और प्रताप को घेरकर चारों तरफ़ से प्रहार करने लगे। प्रताप के सिर पर मेवाड़ का राजमुकुट लगा हुआ था। इसलिए मुग़ल सैनिक उसी को निशाना बनाकर वार कर रहे थे। राजपूत सैनिक भी उसे बचाने के लिए प्राण हथेली पर रखकर संघर्ष कर रहे थे। परन्तु धीरे-धीरे प्रताप संकट में फँसता जा रहे थे। स्थिति की गम्भीरता को परखकर 'झाला सरदार' ने स्वामिभक्ति का एक अपूर्व आदर्श प्रस्तुत करते हुए अपने प्राणों का बलिदान कर दिया। झाला सरदार 'मन्नाजी' तेज़ी के साथ आगे बढ़ा और प्रताप के सिर से मुकुट उतार कर अपने सिर पर रख लिया और तेज़ी के साथ कुछ दूरी पर जाकर घमासान युद्ध करने लगा। मुग़ल सैनिक उसे ही प्रताप समझकर उस पर टूट पड़े और प्रताप को युद्ध भूमि से दूर निकल जाने का अवसर मिल गया। उसका सारा शरीर अगणित घावों से लहूलुहान हो चुका था। युद्धभूमि से जाते-जाते प्रताप ने मन्नाजी को मरते देखा। राजपूतों ने बहादुरी के साथ मुग़लों का मुक़ाबला किया, परन्तु मैदानी तोपों तथा बन्दूकधारियों से सुसज्जित शत्रु की विशाल सेना के सामने समूचा पराक्रम निष्फल रहा। युद्धभूमि पर उपस्थित बाईस हज़ार राजपूत सैनिकों में से केवल आठ हज़ार जीवित सैनिक युद्धभूमि से किसी प्रकार बचकर निकल पाये।

 वनवास

महाराणा प्रताप चित्तौड़ छोड़कर वनवासी हो गए। महाराणी, सुकुमार राजकुमारी और कुमार घास की रोटियों और निर्झर के जल पर ही किसी प्रकार जीवन व्यतीत करने को बाध्य हुए। अरावली की गुफ़ाएँ ही अब उनका आवास थीं और शिला ही शैय्या थी। दिल्ली का सम्राट सादर सेनापतित्व देने को प्रस्तुत था। उससे भी अधिक वह केवल यह चाहता था कि प्रताप मुग़लों की अधीनता स्वीकार कर लें और उसका दम्भ सफल हो जाय। हिंदुत्व पर 'दीन-ए-इलाही' स्वयं विजयी हो जाता। प्रताप राजपूत की आन का वह सम्राट, हिंदुत्व का वह गौरव-सूर्य इस संकट, त्याग, तप में अम्लान रहा, अडिंग रहा। धर्म के लिये, आन के लिये यह तपस्या अकल्पित है। कहते हैं महाराणा ने अकबर को एक बार सन्धि-पत्र भेजा था, पर इतिहासकार इसे सत्य नहीं मानते। यह अबुल फ़ज़ल की मात्र एक गढ़ी हुई कहानी भर है। अकल्पित सहायता मिली, मेवाड़ के गौरव भामाशाह ने महाराणा के चरणों में अपनी समस्त सम्पत्ति रख दी। महाराणा इस प्रचुर सम्पत्ति से पुन: सैन्य-संगठन में लग गये। चित्तौड़ को छोड़कर महाराणा ने अपने समस्त दुर्गों का शत्रु से उद्धार कर लिया। उदयपुर उनकी राजधानी बना। अपने 24 वर्षों के शासन काल में उन्होंने मेवाड़ की केसरिया पताका सदा ऊँची रखी


पराक्रमी चेतक


महाराणा प्रताप का सबसे प्रिय घोड़ा 'चेतक' था। हल्दीघाटी के युद्ध में बिना किसी सहायक के प्रताप अपने पराक्रमी चेतक पर सवार हो पहाड़ की ओर चल पडे‌। उसके पीछे दो मुग़ल सैनिक लगे हुए थे, परन्तु चेतक ने प्रताप को बचा लिया। रास्ते में एक पहाड़ी नाला बह रहा था। घायल चेतक फुर्ती से उसे लाँघ गया, परन्तु मुग़ल उसे पार न कर पाये। चेतक, नाला तो लाँघ गया, पर अब उसकी गति धीरे-धीरे कम होती गई और पीछे से मुग़लों के घोड़ों की टापें भी सुनाई पड़ीं। उसी समय प्रताप को अपनी मातृभाषा में आवाज़ सुनाई पड़ी, "हो, नीला घोड़ा रा असवार।" प्रताप ने पीछे मुड़कर देखा तो उसे एक ही अश्वारोही दिखाई पड़ा और वह था, उसका भाई शक्तिसिंह। प्रताप के साथ व्यक्तिगत विरोध ने उसे देशद्रोही बनाकर अकबर का सेवक बना दिया था और युद्धस्थल पर वह मुग़ल पक्ष की तरफ़ से लड़ रहा था। जब उसने नीले घोड़े को बिना किसी सेवक के पहाड़ की तरफ़ जाते हुए देखा तो वह भी चुपचाप उसके पीछे चल पड़ा, परन्तु केवल दोनों मुग़लों को यमलोक पहुँचाने के लिए।

शक्तिसिंह द्वारा राणा प्रताप की सुरक्षा

जीवन में पहली बार दोनों भाई प्रेम के साथ गले मिले। इस बीच चेतक ज़मीन पर गिर पड़ा और जब प्रताप उसकी काठी को खोलकर अपने भाई द्वारा प्रस्तुत घोड़े पर रख रहा था, चेतक ने प्राण त्याग दिए। बाद में उस स्थान पर एक चबूतरा खड़ा किया गया, जो आज तक उस स्थान को इंगित करता है, जहाँ पर चेतक मरा था। प्रताप को विदा करके शक्तिसिंह खुरासानी सैनिक के घोड़े पर सवार होकर वापस लौट आया। सलीम को उस पर कुछ सन्देह पैदा हुआ। जब शक्तिसिंह ने कहा कि प्रताप ने न केवल पीछा करने वाले दोनों मुग़ल सैनिकों को मार डाला अपितु मेरा घोड़ा भी छीन लिया। इसलिए मुझे खुरासानी सैनिक के घोड़े पर सवार होकर आना पड़ा। सलीम ने वचन दिया कि अगर तुम सत्य बात कह दोगे तो मैं तुम्हें क्षमा कर दूँगा। तब शक्तिसिंह ने कहा, "मेरे भाई के कन्धों पर मेवाड़ राज्य का बोझा है। इस संकट के समय उसकी सहायता किए बिना मैं कैसे रह सकता था।" सलीम ने अपना वचन निभाया, परन्तु शक्तिसिंह को अपनी सेवा से हटा दिया। राणा प्रताप की सेवा में पहुँचकर उसे अच्छी नज़र भेंट की जा सके, इस ध्येय से उसने भिनसोर नामक दुर्ग पर आक्रमण कर उसे जीत लिया। उदयपुर पहुँचकर उस दुर्ग को भेंट में देते हुए शक्तिसिंह ने प्रताप का अभिवादन किया। प्रताप ने प्रसन्न होकर वह दुर्ग शक्तिसिंह को पुरस्कार में दे दिया। यह दुर्ग लम्बे समय तक उसके वंशजों के अधिकार में बना रहा।[5] संवत 1632 (जुलाई, 1576 ई.) के सावन मास की सप्तमी का दिन मेवाड़ के इतिहास में सदा स्मरणीय रहेगा। उस दिन मेवाड़ के अच्छे रुधिर ने हल्दीघाटी को सींचा था। प्रताप के अत्यन्त निकटवर्ती पाँच सौ कुटुम्बी और सम्बन्धी, ग्वालियर का भूतपूर्व राजा रामशाह और साढ़े तीन सौ तोमर वीरों के साथ रामशाह का बेटा खाण्डेराव मारा गया। स्वामिभक्त झाला मन्नाजी अपने डेढ़ सौ सरदारों सहित मारा गया और मेवाड़ के प्रत्येक घर ने बलिदान किया


महाराणा की प्रतिज्ञा

प्रताप को अभूतपूर्व समर्थन मिला। यद्यपि धन और उज्ज्वल भविष्य ने उसके सरदारों को काफ़ी प्रलोभन दिया, परन्तु किसी ने भी उसका साथ नहीं छोड़ा। जयमल के पुत्रों ने उसके कार्य के लिये अपना रक्त बहाया। पत्ता के वंशधरों ने भी ऐसा ही किया और सलूम्बर के कुल वालों ने भी चूण्डा की स्वामिभक्ति को जीवित रखा। इनकी वीरता और स्वार्थ-त्याग का वृत्तान्त मेवाड़ के इतिहास में अत्यन्त गौरवमय समझा जाता है। उसने प्रतिज्ञा की थी कि वह 'माता के पवित्र दूध को कभी कलंकित नहीं करेगा।' इस प्रतिज्ञा का पालन उसने पूरी तरह से किया। कभी मैदानी प्रदेशों पर धावा मारकर जन-स्थानों को उजाड़ना तो कभी एक पर्वत से दूसरे पर्वत पर भागना और इस विपत्ति काल में अपने परिवार का पर्वतीय कन्दमूल-फल द्वारा भरण-पोषण करना और अपने पुत्र 'अमर' का जंगली जानवरों और जंगली लोगों के मध्य पालन करना, अत्यन्त कष्टप्राय कार्य था। इन सबके पीछे मूल मंत्र यही था कि बप्पा रावल का वंशज किसी शत्रु अथवा देशद्रोही के सम्मुख शीश झुकाये, यह असम्भव बात थी। क़ायरों के योग्य इस पापमय विचार से ही प्रताप का हृदय टुकड़े-टुकड़े हो जाता था। तातार वालों को अपनी बहन-बेटी समर्पण कर अनुग्रह प्राप्त करना, प्रताप को किसी भी दशा में स्वीकार्य न था। 'चित्तौड़ के उद्धार से पूर्व पात्र में भोजन, शैय्या पर शयन दोनों मेरे लिये वर्जित रहेंगे।' महाराणा की प्रतिज्ञा अक्षुण्ण रही और जब वे (विक्रम संवत 1653 माघ शुक्ल 11) तारीख़ 29 जनवरी सन 1597 ई. में परमधाम की यात्रा करने लगे, उनके परिजनों और सामन्तों ने वही प्रतिज्ञा करके उन्हें आश्वस्त किया। अरावली के कण-कण में महाराणा का जीवन-चरित्र अंकित है। शताब्दियों तक पतितों, पराधीनों और उत्पीड़ितों के लिये वह प्रकाश का काम देगा। चित्तौड़ की उस पवित्र भूमि में युगों तक मानव स्वराज्य एवं स्वधर्म का अमर सन्देश झंकृत होता रहेगा।

माई एहड़ा पूत जण, जेहड़ा राण प्रताप।
अकबर सूतो ओधकै, जाण सिराणै साप॥

कठोर जीवन निर्वाह

चित्तौड़ के विध्वंस और उसकी दीन दशा को देखकर भट्ट कवियों ने उसको आभूषण रहित विधवा स्त्री की उपमा दी है। प्रताप ने अपनी जन्मभूमि की इस दशा को देखकर सब प्रकार के भोग-विलास को त्याग दिया। भोजन-पान के समय काम में लिये जाने वाले सोने-चाँदी के बर्तनों को त्यागकर वृक्षों के पत्तों को काम में लिया जाने लगा। कोमल शय्या को छोड़ तृण शय्या का उपयोग किया जाने लगा। उसने अकेले ही इस कठिन मार्ग को अपनाया ही नहीं अपितु अपने वंश वालों के लिये भी इस कठोर नियम का पालन करने के लिये आज्ञा दी थी कि "जब तक चित्तौड़ का उद्धार न हो, तब तक सिसोदिया राजपूतों को सभी सुख त्याग देने चाहिए।" चित्तौड़ की मौजूदा दुर्दशा सभी लोगों के हृदय में अंकित हो जाय, इस दृष्टि से उसने यह आदेश भी दिया कि युद्ध के लिये प्रस्थान करते समय जो नगाड़े सेना के आगे-आगे बजाये जाते थे, वे अब सेना के पीछे बजाये जायें। इस आदेश का पालन आज तक किया जा रहा है और युद्ध के नगाड़े सेना के पिछले भाग के साथ ही चलते हैं।

राणा प्रताप और अकबर

अजमेर को अपना केन्द्र बनाकर अकबर ने प्रताप के विरुद्ध सैनिक अभियान शुरू कर दिया। मारवाड़ का मालदेव, जिसने शेरशाह का प्रबल विरोध किया था, मेड़ता और जोधपुर में असफल प्रतिरोध के बाद आमेर के भगवान दास के समान ही अकबर की शरण में चला गया।[6] उसने अपने पुत्र उदयसिंह को अकबर की सेवा में भेजा। अकबर ने अजमेर की तरफ़ जाते हुए नागौर में उससे मुलाक़ात की और इस अवसर पर मंडौर के राव को 'राजा' की उपाधि प्रदान की।[7]उसका उत्तराधिकारी उदयसिंह स्थूल शरीर का था, अतः आगे चलकर वह राजस्थान के इतिहास में मोटा राजा के नाम से विख्यात हुआ। इस समय से कन्नौज के वंशज मुग़ल बादशाह के 'दाहिने हाथ' पर स्थान पाने लगे। परन्तु अपनी कुल मर्यादा की बलि देकर मारवाड़ नरेश ने जिस सम्मान को प्राप्त किया था, वह सम्मान क्या मारवाड़ के राजा के सन्तान की ऊँचे सम्मान की बराबरी कर सकता है।
[सम्पादन] उदयसिंह द्वारा मुग़लों से विवाह सम्बन्ध

मोटा राजा उदयसिंह पहला व्यक्ति था, जिसने अपनी कुल की पहली कन्या का विवाह तातार से किया था।[8] इस सम्बन्ध के लिए जो घूस ली गई वह महत्त्वपूर्ण थी। उसे चार समृद्ध परगने प्राप्त हुए। इनकी सालाना आमदनी बीस लाख रुपये थी। इन परगनों के प्राप्त हो जाने से मारवाड़ राज्य की आय दुगुनी हो गई। आमेर और मारवाड़ जैसे उदाहरणों की मौजूदगी में और प्रलोभन का विरोध करने की शक्ति की कमी के कारण, राजस्थान के छोटे राजा लोग अपने असंख्य पराक्रमी सरदारों के साथ दिल्ली के सामंतों में परिवर्तित हो गए और इस परिवर्तन के कारण उनमें से बहुत से लोगों का महत्त्व भी बढ़ गया। मुग़ल इतिहासकारों ने सत्य ही लिखा है कि वे 'सिंहासन के स्तम्भ और अलंकार के स्वरूप थे।' परन्तु उपर्युक्त सभी बातें प्रताप के विरुद्ध भयजनक थीं। उसके देशवासियों के शस्त्र अब उसी के विरुद्ध उठ रहे थे। अपनी मान-मर्यादा बेचने वाले राजाओं से यह बात सही नहीं जा रही थी कि प्रताप गौरव के ऊँचे आसमान पर विराजमान रहे। इस बात का विचार करके ही उनके हृदय में डाह की प्रबल आग जलने लगी। प्रताप ने उन समस्त राजाओं (बूँदी के अलावा) से अपना सम्बन्ध छोड़ दिया, जो मुसलमानों से मिल गए थे।
[सम्पादन] वैवाहिक संबंधों पर रोक

सिसोदिया वंश के किसी शासक ने अपनी कन्या मुग़लों को नहीं दी। इतना ही नहीं, उन्होंने लम्बे समय तक उन राजवंशों को भी अपनी कन्याएँ नहीं दीं, जिन्होंने मुग़लों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध क़ायम किये थे। इससे उन राजाओं को काफ़ी आघात पहुँचा। इसकी पुष्टि मारवाड़ और आमेर के राजाओं, बख़्त सिंह और जयसिंह के पुत्रों से होती है। दोनों ही शासकों ने मेवाड़ के सिसोदिया वंश के साथ वैवाहिक सम्बन्धों को पुनः स्थापित करने का अनुरोध किया था। लगभग एक शताब्दी के बाद उनका अनुरोध स्वीकार किया गया और वह भी इस शर्त के साथ कि मेवाड़ की राजकन्या के गर्भ से उत्पन्न होने वाला पुत्र ही सम्बन्धित राजा का उत्तराधिकारी होगा। सिसोदिया घराने ने अपने रक्त की पवित्रता को बनाये रखने के लिए जो क़दम उठाये गए, उनमें से एक का उल्लेख करना आवश्यक है, क्योंकि उस घटना ने आने वाली घटनाओं को काफ़ी प्रभावित किया है। आमेर का राजा मानसिंह अपने वंश का अत्यधिक प्रसिद्ध राजा था और उसके समय से ही उसके राज्य की उन्नति आरम्भ हुई थी। अकबर उसका फूफ़ा था। वैसे मानसिंह एक साहसी, चतुर और रणविशारद् सेनानायक था और अकबर की सफलताओं में आधा योगदान भी रहा था, परन्तु पारिवारिक सम्बन्ध तथा अकबर की विशेष कृपा से वह मुग़ल साम्राज्य का महत्त्वपूर्ण सेनापित बन गया था। कच्छवाह भट्टकवियों ने उसके शौर्य तथा उसकी उपलब्धियों का तेजस्विनी भाषा में उल्लेख किया है।
[सम्पादन] हल्दीघाटी युद्ध
Main.jpg मुख्य लेख : हल्दीघाटी का युद्ध

हल्दीघाटी का युद्ध अकबर और महाराणा प्रताप के बीच 18 जून, 1576 ई. को हुआ। इससे पूर्व अकबर ने 1541 ई. में मेवाड़ पर आक्रमण कर चित्तौड़ को घेर लिया था, किंतु राणा उदयसिंह ने उसकी अधीनता स्वीकार नहीं की थी। उदयसिंह प्राचीन आधाटपुर के पास उदयपुर नामक अपनी राजधानी बसाकर वहाँ चला गया। उनके बाद महाराणा प्रताप ने भी अकबर से युद्ध जारी रखा। उनका 'हल्दीघाटी का युद्ध' इतिहास प्रसिद्ध है। अकबर ने मेवाड़ को पूर्णरूप से जीतने के लिए अप्रैल, 1576 ई. में आमेर के राजा मानसिंह एवं आसफ ख़ाँ के नेतृत्व में मुग़ल सेना को आक्रमण के लिए भेजा। दोनों सेनाओं के मध्य गोगुडा के निकट अरावली पर्वत की 'हल्दीघाटी' शाखा के मध्य युद्ध हुआ। इस युद्ध में राणा प्रताप पराजित हुए। लड़ाई के दौरान अकबर ने कुम्भलमेर दुर्ग से भी महाराणा प्रताप को खदेड़ दिया तथा मेवाड़ पर अनेक आक्रमण करवाये। इस पर भी राणा प्रताप ने उसकी अधीनता स्वीकार नहीं की। बाद के कुछ वर्षों में जब अकबर का ध्यान दूसरे कामों में लगा गया, तब प्रताप ने अपने स्थानों पर फिर अधिकार कर लिया था। सन् 1597 में चावंड में उनकी मृत्यु हो गई थी।
[सम्पादन] राणा प्रताप की मानसिंह से भेंट
चित्तौड़गढ़ का क़िला
Fort Of Chittorgarh

शोलापुर की विजय के बाद मानसिंह वापस हिन्दुस्तान लौट रहा था तो उसने राणा प्रताप से, जो इन दिनों कमलमीर में था, मिलने की इच्छा प्रकट की। प्रताप उसका स्वागत करने के लिए उदयसागर तक आया। इस झील के सामने वाले टीले पर आमेर के राजा के लिए दावत की व्यवस्था की गई थी। भोजन तैयार हो जाने पर मानसिंह को बुलावा भेजा गया। राजकुमार अमरसिंह को अतिथि की सेवा के लिए नियुक्त किया गया था। राणा प्रताप अनुपस्थित थे। मानसिंह के पूछने पर अमरसिंह ने बताया कि राणा को सिरदर्द है, वे नहीं आ पायेंगे। आप भोजन करके विश्राम करें। मानसिंह ने गर्व के साथ सम्मानित स्वर में कहा कि "राणा जी से कहो कि उनके सिर दर्द का यथार्थ कारण समझ गया हूँ। जो कुछ होना था, वह तो हो गया और उसको सुधारने का कोई उपाय नहीं है, फिर भी यदि वे मुझे खाना नहीं परोसेंगे तो और कौन परोसेगा।" मानसिंह ने राणा के बिना भोजन स्वीकार नहीं किया। तब प्रताप ने उसे कहला भेजा कि "जिस राजपूत ने अपनी बहन तुर्क को दी हो, उसके साथ कौन राजपूत भोजन करेगा।"

राजा मानसिंह ने इस अपमान को आहूत करने में बुद्धिमता नहीं दिखाई थी। यदि प्रताप की तरफ़ से उसे निमंत्रित किया गया होता, तब तो उसका विचार उचित माना जा सकता था, परन्तु इसके लिए प्रताप को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। मानसिंह ने भोजन को छुआ तक नहीं, केवल चावल के कुछ कणों को जो अन्न देवता को अर्पण किए थे, उन्हें अपनी पगड़ी में रखकर वहाँ से चला गया। जाते समय उसने कहा, "आपकी ही मान-मर्यादा बचाने के लिए हमने अपनी मर्यादा को खोकर मुग़लों को अपनी बहिन-बेटियाँ दीं। इस पर भी जब आप में और हम में विषमता रही, तो आपकी स्थिति में भी कमी आयेगी। यदि आपकी इच्छा सदा ही विपत्ति में रहने की है, तो यह अभिप्राय शीघ्र ही पूरा होगा। यह देश हृदय से आपको धारण नहीं करेगा।" अपने घोड़े पर सवार होकर मानसिंह ने राणा प्रताप, जो इस समय आ पहुँचे थे, को कठोर दृष्टि से निहारते हुए कहा, "यदि मैं तुम्हारा यह मान चूर्ण न कर दूँ तो मेरा नाम मानसिंह नहीं।"

प्रताप ने उत्तर दिया कि "आपसे मिलकर मुझे खुशी होगी।" वहाँ पर उपस्थित किसी व्यक्ति ने अभद्र भाषा में कह दिया कि "अपने साथ फूफ़ा को लाना मत भूलना।" जिस स्थान पर मानसिंह के लिए भोजन सजाया गया था, उसे अपवित्र हुआ मानकर खोद दिया गया और फिर वहाँ गंगा का जल छिड़का गया और जिन सरदारों एवं राजपूतों ने अपमान का यह दृश्य देखा था, उन सभी ने अपने को मानसिंह का दर्शन करने से पतित समझकर स्नान किया तथा वस्त्रादि बदले।[9]मुग़ल सम्राट को सम्पूर्ण वृत्तान्त की सूचना दी गई। उसने मानसिंह के अपमान को अपना अपमान समझा। अकबर ने समझा था कि राजपूत अपने पुराने संस्कारों को छोड़ बैठे होंगे, परन्तु यह उसकी भूल थी। इस अपमान का बदला लेने के लिए युद्ध की तैयारी की गई और इन युद्धों ने प्रताप का नाम अमर कर दिया। पहला युद्ध हल्दीघाटी के नाम से प्रसिद्ध है। जब तक मेवाड़ पर किसी सिसोदिया का अधिकार रहेगा अथवा कोई भट्टकवि जीवित रहेगा, तब तक हल्दीघाटी का नाम कोई भुला नहीं सकेगा।
मान सिंह पर हमला करते हुए महाराणा प्रताप और चेतक
[सम्पादन] कमलमीर का युद्ध

विजय से प्रसन्न सलीम पहाड़ियों से लौट गया, क्योंकि वर्षा ऋतु के आगमन से आगे बढ़ना सम्भव न था। इससे प्रताप को कुछ राहत मिली। परन्तु कुछ समय बाद शत्रु पुनः चढ़ आया और प्रताप को एक बार पुनः पराजित होना पड़ा। तब प्रताप ने कमलमीर को अपना केन्द्र बनाया। मुग़ल सेनानायकों कोका और शाहबाज ख़ाँ ने इस स्थान को भी घेर लिया। प्रताप ने जमकर मुक़ाबला किया और तब तक इस स्थान को नहीं छोड़ा, जब तक पानी के विशाल स्रोत नोगन के कुँए का पानी विषाक्त नहीं कर दिया गया। ऐसे घृणित विश्वासघात का श्रेय आबू के देवड़ा सरदार को जाता है, जो इस समय अकबर के साथ मिला हुआ था। कमलमीर से प्रताप चावंड चला गया और सोनगरे सरदार भान ने अपनी मृत्यु तक कमलमीर की रक्षा की। कमलमीर के पतन के बाद राजा मानसिंह ने धरमेती और गोगुन्दा के दुर्गों पर भी अधिकार कर लिया। इसी अवधि में मोहब्बत ख़ाँ ने उदयपुर पर अधिकार कर लिया और अमीशाह नामक एक मुग़ल शाहज़ादा ने चावंड और अगुणा पानोर के मध्यवर्ती क्षेत्र में पड़ाव डाल कर यहाँ के भीलों से प्रताप को मिलने वाली सहायता रोक दी। फ़रीद ख़ाँ नामक एक अन्य मुग़ल सेनापति ने छप्पन पर आक्रमण किया और दक्षिण की तरफ़ से चावंड को घेर लिया। इस प्रकार प्रताप चारों तरफ़ से शत्रुओं से घिर गया और बचने की कोई उम्मीद न थी। वह रोज़ाना एक स्थान से दूसरे स्थान, एक पहाड़ी से दूसरी पहाड़ी के गुप्त स्थानों में छिपता रहता और अवसर मिलने पर शत्रु पर आक्रमण करने से भी न चूकता। फ़रीद ने प्रताप को पकड़ने के लिए चारों तरफ़ अपने सैनिकों का जाल बिछा दिया, परन्तु प्रताप की छापामार पद्धति ने असंख्य मुग़ल सैनिकों को मौत के घाट पहुँचा दिया। वर्षा ऋतु ने पहाड़ी नदियों और नालों को पानी से भर दिया, जिसकी वजह से आने जाने के मार्ग अवरुद्ध हो गए। परिणामस्वरूप मुग़लों के आक्रमण स्थगित हो गए।
[सम्पादन] परिवार की सुरक्षा

इस प्रकार समय गुज़रता गया और प्रताप की कठिनाइयाँ भयंकर बनती गईं। पर्वत के जितने भी स्थान प्रताप और उसके परिवार को आश्रय प्रदान कर सकते थे, उन सभी पर बादशाह का आधिकार हो गया। राणा को अपनी चिन्ता न थी, चिन्ता थी तो बस अपने परिवार की ओर से छोटे-छोटे बच्चों की। वह किसी भी दिन शत्रु के हाथ में पड़ सकते थे। एक दिन तो उसका परिवार शत्रुओं के पँन्जे में पहुँच गया था, परन्तु कावा के स्वामीभक्त भीलों ने उसे बचा लिया। भील लोग राणा के बच्चों को टोकरों में छिपाकर जावरा की खानों में ले गये और कई दिनों तक वहीं पर उनका पालन-पोषण किया। भील लोग स्वयं भूखे रहकर भी राणा और परिवार के लिए खाने की सामग्री जुटाते रहते थे। जावरा और चावंड के घने जंगल के वृक्षों पर लोहे के बड़े-बड़े कीले अब तक गड़े हुए मिलते हैं। इन कीलों में बेतों के बड़े-बड़े टोकरे टाँग कर उनमें राणा के बच्चों को छिपाकर वे भील राणा की सहायता करते थे। इससे बच्चे पहाड़ों के जंगली जानवरों से भी सुरक्षित रहते थे। इस प्रकार की विषम परिस्थिति में भी प्रताप का विश्वास नहीं डिगा।
[सम्पादन] अकबर द्वारा प्रशंसा

अकबर ने भी इन समाचारों को सुना और पता लगाने के लिए अपना एक गुप्तचर भेजा। वह किसी तरक़ीब से उस स्थान पर पहुँच गया, जहाँ राणा और उसके सरदार एक घने जंगल के मध्य एक वृक्ष के नीचे घास पर बैठे भोजन कर रहे थे। खाने में जंगली फल, पत्तियाँ और जड़ें थीं। परन्तु सभी लोग उस खाने को उसी उत्साह के साथ खा रहे थे, जिस प्रकार कोई राजभवन में बने भोजन को प्रसन्नता और उमंग के साथ खाता हो। गुप्तचर ने किसी चेहरे पर उदासी और चिन्ता नहीं देखी। उसने वापस आकर अकबर को पूरा वृत्तान्त सुनाया। सुनकर अकबर का हृदय भी पसीज गया और प्रताप के प्रति उसमें मानवीय भावना जागृत हुई। उसने अपने दरबार के अनेक सरदारों से प्रताप के तप, त्याग और बलिदान की प्रशंसा की। अकबर के विश्वासपात्र सरदार अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना ने भी अकबर के मुख से प्रताप की प्रशंसा सुनी थी। उसने अपनी भाषा में लिखा, "इस संसार में सभी नाशवान हैं। राज्य और धन किसी भी समय नष्ट हो सकता है, परन्तु महान व्यक्तियों की ख्याति कभी नष्ट नहीं हो सकती। पुत्तों ने धन और भूमि को छोड़ दिया, परन्तु उसने कभी अपना सिर नहीं झुकाया। हिन्द के राजाओं में वही एकमात्र ऐसा राजा है, जिसने अपनी जाति के गौरव को बनाए रखा है।"

परन्तु कभी-कभी ऐसे अवसर आ उपस्थित होते, जब अपने प्राणों से भी प्यारे लोगों को भयानक आवाज़ से ग्रस्त देखकर वह भयभीत हो उठता। उसकी पत्नी किसी पहाड़ी या गुफ़ा में भी असुरक्षित थी और उसके उत्तराधिकारी, जिन्हें हर प्रकार की सुविधाओं का अधिकार था, भूख से बिलखते उसके पास आकर रोने लगते। मुग़ल सैनिक इस प्रकार उसके पीछे पड़ गए थे कि भोजन तैयार होने पर कभी-कभी खाने का अवसर न मिलता था और सुरक्षा के लिए भोजन छोड़कर भागना पड़ता था। एक दिन तो पाँच बार भोजन पकाया गया और हर बार भोजन को छोड़कर भागना पड़ा। एक अवसर पर प्रताप की पत्नी और उसकी पुत्र-वधु ने घास के बीजों को पीसकर कुछ रोटियाँ बनाई। उनमें से आधी रोटियाँ बच्चों को दे दी गई और बची हुई आधी रोटियाँ दूसरे दिन के लिए रख दी गईं। इसी समय प्रताप को अपनी लड़की की चिल्लाहट सुनाई दी। एक जंगली बिल्ली लड़की के हाथ से उसके हिस्से की रोटी को छीनकर भाग गई और भूख से व्याकुल लड़की के आँसू टपक आये।[10] जीवन की इस दुरावस्था को देखकर राणा का हृदय एक बार विचलित हो उठा। अधीर होकर उसने ऐसे राज्याधिकार को धिक्कारा, जिसकी वज़ह से जीवन में ऐसे करुण दृश्य देखने पड़े और उसी अवस्था में अपनी कठिनाइयों को दूर करने के लिए उसने एक पत्र के द्वारा अकबर से मिलने की माँग की।
[सम्पादन] पृथ्वीराज द्वारा प्रताप का स्वाभिमान जाग्रत करना

प्रताप के पत्र को पाकर अकबर की प्रसन्नता की सीमा न रही। उसने इसका अर्थ प्रताप का आत्मसमर्पण समझा और उसने कई प्रकार के सार्वजनिक उत्सव किए। अकबर ने उस पत्र को पृथ्वीराज नामक एक श्रेष्ठ एवं स्वाभीमानी राजपूत को दिखलाया। पृथ्वीराज बीकानेर के नरेश का छोटा भाई था। बीकानेर नरेश ने मुग़ल सत्ता के सामने शीश झुका दिया था। पृथ्वीराज केवल वीर ही नहीं अपितु एक योग्य कवि भी था। वह अपनी कविता से मनुष्य के हृदय को उन्मादित कर देता था। वह सदा से प्रताप की आराधना करता आया था। प्रताप के पत्र को पढ़कर उसका मस्तक चकराने लगा। उसके हृदय में भीषण पीड़ा की अनुभूति हुई। फिर भी अपने मनोभावों पर अंकुश रखते हुए उसने अकबर से कहा कि "यह पत्र प्रताप का नहीं है। किसी शत्रु ने प्रताप के यश के साथ यह जालसाज़ की है। आपको भी धोखा दिया है। आपके ताज़ के बदले में भी वह आपकी आधीनता स्वीकार नहीं करेगा।" सच्चाई को जानने के लिए उसने अकबर से अनुरोध किया कि वह उसका पत्र प्रताप तक पहुँचा दे। अकबर ने उसकी बात मान ली और पृथ्वीराज ने राजस्थानी शैली में प्रताप को एक पत्र लिख भेजा। अकबर ने सोचा कि इस पत्र से असलियत का पता चल जायेगा और पत्र था भी ऐसा ही। परन्तु पृथ्वीराज ने उस पत्र के द्वारा प्रताप को उस स्वाभीमान का स्मरण कराया, जिसकी खातिर उसने अब तक इतनी विपत्तियों को सहन किया था और अपूर्व त्याग व बलिदान के द्वारा अपना मस्तक ऊँचा रखा था। पत्र में इस बात का भी उल्लेख था कि हमारे घरों की स्त्रियों की मर्यादा छिन्न-भिन्न हो गई है और बाज़ार में वह मर्यादा बेची जा रही है। उसका ख़रीददार केवल अकबर है। उसने सिसोदिया वंश के एक स्वाभिमानी पुत्र को छोड़कर सबको ख़रीद लिया है, परन्तु प्रताप को नहीं ख़रीद पाया है। वह ऐसा राजपूत नहीं, जो नौरोजा के लिए अपनी मर्यादा का परित्याग कर सकता है। क्या अब चित्तौड़ का स्वाभिमान भी इस बाज़ार में बिक़ेगा।[11]
[सम्पादन] खुशरोज़ त्योहार

राठौर पृथ्वीराज के ओजस्वी पत्र ने प्रताप के मन की निराशा को दूर कर दिया और उसे लगा जैसे दस हज़ार राजपूतों की शक्ति उसके शरीर में समा गई हो। उसने अपने स्वाभिमान को क़ायम रखने का दृढ़संकल्प कर लिया। पृथ्वीराज के पत्र में "नौरोजा के लिए मर्यादा का सौदा" करने की बात कही गई। इसका स्पष्टीकरण देना आवश्यक है। 'नौरोजा' का अर्थ "वर्ष का नया दिन" होता है और पूर्व के मुसलमानों का यह धार्मिक त्योहार है। अकबर ने स्वयं इसकी प्रतिष्ठा की और इसका नाम रखा "खुशरोज़" अर्थात् 'खुशी का दिन' और इसकी शुरुआत अकबर ने ही की थी। इस अवसर पर सभी लोग उत्सव मनाते और राजदरबार में भी कई प्रकार के आयोजन किए जाते थे। इस प्रकार के आयोजनों में एक प्रमुख आयोजन स्त्रियों का मेला था। एक बड़े स्थान पर मेले का आयोजन किया जाता था, जिसमें केवल स्त्रियाँ ही भाग लेती थीं। वे ही दुकानें लगाती थीं और वे ही ख़रीददारी करती थीं। पुरुषों का प्रवेश निषिद्ध था। राजपूत स्त्रियाँ भी दुकानें लगाती थीं। अकबर छद्म वेष में बाज़ार में जाता था और कहा जाता है कि कई सुन्दर बालाएँ उसकी कामवासना का शिकार हो अपनी मर्यादा लुटा बैठतीं। एक बार राठौर पृथ्वीराज की स्त्री भी इस मेले में शामिल हुई थी और उसने बड़े साहस तथा शौर्य के साथ अपने सतीत्व की रक्षा की थी। वह शाक्तावत वंश की लड़की थी। उस मेले में घूमते हुए अकबर की नज़र उस पर पड़ी और उसकी सुन्दरता से प्रभावित होकर अकबर की नियत बिगड़ गई और उसने किसी उपाय से उसे मेले से अलग कर दिया। पृथ्वीराज की स्त्री ने जब क़ामुक अकबर को अपने सम्मुख पाया तो उसने अपने वस्त्रों में छिपी कटार को निकालकर कहा, "ख़बरदार, अगर इस प्रकार की तूने हिम्मत की। सौगन्ध खा कि आज से कभी किसी स्त्री के साथ में ऐसा व्यवहार न करेगा।" अकबर के क्षमा माँगने के बाद पृथ्वीराज की स्त्री मेले से चली गई। अबुल फ़ज़ल ने इस मेले के बारे में अलग बात लिखी है। उनके अनुसार बादशाह अकबर वेष बदलकर मेले में इसलिए जाता था कि उसे वस्तुओं के भाव-ताव मालूम हो सकें।
[सम्पादन] भामाशाह द्वारा प्रताप की शक्तियाँ जाग्रत होना
Main.jpg मुख्य लेख : भामाशाह

पृथ्वीराज का पत्र पढ़ने के बाद राणा प्रताप ने अपने स्वाभिमान की रक्षा करने का निर्णय कर लिया। परन्तु मौजूदा परिस्थितियों में पर्वतीय स्थानों में रहते हुए मुग़लों का प्रतिरोध करना सम्भव न था। अतः उसने रक्तरंजित चित्तौड़ और मेवाड़ को छोड़कर किसी दूरवर्ती स्थान पर जाने का विचार किया। उसने तैयारियाँ शुरू कीं। सभी सरदार भी उसके साथ चलने को तैयार हो गए। चित्तौड़ के उद्धार की आशा अब उनके हृदय से जाती रही थी। अतः प्रताप ने सिंध नदी के किनारे पर स्थित सोगदी राज्य की तरफ़ बढ़ने की योजना बनाई ताकि बीच का मरुस्थल उसके शत्रु को उससे दूर रखे। अरावली को पार कर जब प्रताप मरुस्थल के किनारे पहुँचा ही था कि एक आश्चर्यजनक घटना ने उसे पुनः वापस लौटने के लिए विवश कर दिया। मेवाड़ के वृद्ध मंत्री भामाशाह ने अपने जीवन में काफ़ी सम्पत्ति अर्जित की थी। वह अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति के साथ प्रताप की सेवा में आ उपस्थित हुआ और उससे मेवाड़ के उद्धार की याचना की। यह सम्पत्ति इतनी अधिक थी कि उससे वर्षों तक 25,000 सैनिकों का खर्चा पूरा किया जा सकता था।[12] भामाशाह का नाम मेवाड़ के उद्धारकर्ताओं के रूप में आज भी सुरक्षित है। भामाशाह के इस अपूर्व त्याग से प्रताप की शक्तियाँ फिर से जागृत हो उठीं।
[सम्पादन] दुर्गों पर अधिकार
युद्धभूमि पर महाराणा प्रताप के चेतक (घोड़े) की मौत

महाराणा प्रताप ने वापस आकर राजपूतों की एक अच्छी सेना बना ली, जबकि उसके शत्रुओं को इसकी भनक भी नहीं मिल पाई। ऐसे में प्रताप ने मुग़ल सेनापति शाहबाज़ ख़ाँ को देवीर नामक स्थान पर अचानक आ घेरा। मुग़लों ने जमकर सामना किया, परन्तु वे परास्त हुए। बहुत से मुग़ल मारे गए और बाक़ी पास की छावनी की ओर भागे। राजपूतों ने आमेर तक उनका पीछा किया और उस मुग़ल छावनी के अधिकांश सैनिकों को भी मौत के घाट उतार दिया गया। इसी समय कमलमीर पर आक्रमण किया गया और वहाँ का सेनानायक अब्दुल्ला मारा गया और दुर्ग पर प्रताप का अधिकार हो गया। थोड़े ही दिनों में एक के बाद एक करके बत्तीस दुर्गों पर अधिकार कर लिया गया और दुर्गों में नियुक्त मुग़ल सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया गया। संवत 1586 (1530 ई.) में चित्तौड़, अजमेर और मांडलगढ़ को छोड़कर सम्पूर्ण मेवाड़ पर प्रताप ने अपना पुनः अधिकार जमा लिया।[13] राजा मानसिंह को उसके देशद्रोह का बदला देने के लिए प्रताप ने आमेर राज्य के समृद्ध नगर मालपुरा को लूटकर नष्ट कर दिया। उसके बाद प्रताप उदयपुर की तरफ़ बढ़ा। मुग़ल सेना बिना युद्ध लड़े ही वहाँ से चली गई और उदयपुर पर प्रताप का अधिकार हो गया। अकबर ने थोड़े समय के लिए युद्ध बन्द कर दिया।

सम्पूर्ण जीवन युद्ध करके और भयानक कठिनाइयों का सामना करके प्रताप ने जिस तरह से अपना जीवन व्यतीत किया, उसकी प्रशंसा इस संसार से मिट न सकेगी। परन्तु इन सबके परिणामस्वरूप प्रताप में समय से पहले ही बुढ़ापा आ गया। उसने जो प्रतिज्ञा की थी, उसे अन्त तक निभाया। राजमहलों को छोड़कर प्रताप ने पिछोला तालाब के निकट अपने लिए कुछ झोपड़ियाँ बनवाई थीं ताकि वर्षा में आश्रय लिया जा सके। इन्हीं झोपड़ियों में प्रताप ने सपरिवार सहित अपना जीवन व्यतीत किया। अब जीवन का अन्तिम समय आ पहुँचा था। प्रताप ने चित्तौड़ के उद्धार की प्रतिज्ञा की थी, परन्तु उसमें सफलता न मिली। फिर भी, उसने अपनी थोड़ी सी सेना की सहायता से मुग़लों की विशाल सेना को इतना अधिक परेशान किया कि अन्त में अकबर को युद्ध बन्द कर देना पड़ा।
[सम्पादन] वीरता के परिचायक

महाराणा प्रताप ने एक प्रतिष्ठित कुल के मान-सम्मान और उसकी उपाधि को प्राप्त किया। परन्तु उसके पास न तो राजधानी थी और न ही वित्तीय साधन। बार-बार की पराजयों ने उसके स्व-बन्धुओं और जाति के लोगों को निरुत्साहित कर दिया था। फिर भी उसके पास अपना जातीय स्वाभिमान था। उसने सत्तारूढ़ होते ही चित्तौड़ के उद्धार, कुल के सम्मान की पुनर्स्थापना तथा उसकी शक्ति को प्रतिष्ठित करने की तरफ़ अपना ध्यान केन्द्रित किया। इस ध्येय से प्रेरित होकर वह अपने प्रबल शत्रु के विरुद्ध जुट सका। उसने इस बात की चिन्ता नहीं की कि परिस्थितियाँ उसके कितने प्रतिकूल हैं। उसका चतुर विरोधी एक सुनिश्चित नीति के द्वारा उसके ध्येय का परास्त करने में लगा हुआ था। मुग़ल प्रताप के धर्म और रक्त बंधुओं को ही उसके विरोध में खड़ा करने में जुटा था। मारवाड़, आमेर, बीकानेर और बूँदी के राजा लोग अकबर की सार्वभौम सत्ता के सामने मस्तक झुका चुके थे। इतना ही नहीं, प्रताप का सगा भाई 'सागर'[14] भी उसका साथ छोड़कर शत्रु पक्ष से जा मिला और अपने इस विश्वासघात की क़ीमत उसे अपने कुल की राजधानी और उपाधि के रूप में प्राप्त हुई।
[सम्पादन] कुशल प्रशासक
महाराणा प्रताप का डाक टिकट
Maharana Pratap Stamp

महाराणा प्रताप प्रजा के हृदय पर शासन करने वाले थे। एक आज्ञा हुई और विजयी सेना ने देखा उसकी विजय व्यर्थ है। चित्तौड़ भस्म हो गया, खेत उजड़ गये, कुएँ भर दिये गये और ग्राम के लोग जंगल एवं पर्वतों में अपने समस्त पशु एवं सामग्री के साथ अदृश्य हो गये। शत्रु के लिये इतना विकट उत्तर, यह उस समय महाराणा की अपनी सूझ है। अकबर के उद्योग में राष्ट्रीयता का स्वप्न देखने वालों को इतिहासकार बदायूँनी आसफ ख़ाँ के ये शब्द स्मरण कर लेने चाहिये- "किसी की ओर से सैनिक क्यों न मरे, थे वे हिन्दू ही और प्रत्येक स्थिति में विजय इस्लाम की ही थी।" यह कूटनीति थी अकबर की और महाराणा इसके समक्ष अपना राष्ट्रगौरव लेकर अडिग भाव से उठे थे।
[सम्पादन] मृत्यु

अकबर के युद्ध बन्द कर देने से प्रताप को महा दुःख हुआ। कठोर उद्यम और परिश्रम सहन कर उसने हज़ारों कष्ट उठाये थे, परन्तु शत्रुओं से चित्तौड़ का उद्धार न कर सके। वह एकाग्रचित्त से चित्तौड़ के उस ऊँचे परकोटे और जयस्तम्भों को निहारा करते थे और अनेक विचार उठकर हृदय को डाँवाडोल कर देते थे। ऐसे में ही एक दिन प्रताप एक साधारण कुटी में लेटे हुए काल की कठोर आज्ञा की प्रतीज्ञा कर रहे थे। उनके चारों तरफ़ उनके विश्वासी सरदार बैठे हुए थे। तभी प्रताप ने एक लम्बी साँस ली। सलूम्बर के सामंन्त ने कातर होकर पूछा, "महाराज! ऐसे कौन से दारुण दुःख ने आपको दुःखित कर रखा है और अन्तिम समय में आपकी शान्ति को भंग कर रहा है।" प्रताप का उत्तर था "सरदार जी! अभी तक प्राण अटके हुए हैं, केवल एक ही आश्वासन की वाणी सुनकर यह अभी सुखपूर्वक देह को छोड़ जायेगा। यह वाणी आप ही के पास है।"

"आप सब लोग मेरे सम्मुख प्रतिज्ञा करें कि जीवित रहते अपनी मातृभूमि किसी भी भाँति तुर्कों के हाथों में नहीं सौंपेंगे। पुत्र राणा अमर सिंह हमारे पूर्वजों के गौरव की रक्षा नहीं कर सकेगा। वह मुग़लों के ग्रास से मातृभूमि को नहीं बचा सकेगा। वह विलासी है, वह कष्ट नहीं झेल सकेगा।" इसके बाद राणा ने अमरसिंह को बातें सुनाते हुए कहा, "एक दिन उस नीचि कुटिया में प्रवेश करते समय अमरसिंह अपने सिर से पगड़ी उतारना भूल गया था। द्वार के एक बाँस से टकराकर उसकी पगड़ी नीचे गिर गई। दूसरे दिन उसने मुझसे कहा कि यहाँ पर बड़े-बड़े महल बनवा दीजिए।" कुछ क्षण चुप रहकर प्रताप ने कहा, "इन कुटियों के स्थान पर बड़े-बड़े रमणीक महल बनेंगे, मेवाड़ की दुरवस्था भूलकर अमरसिंह यहाँ पर अनेक प्रकार के भोग-विलास करेगा। अमर के विलासी होने पर मातृभूमि की वह स्वाधीनता जाती रहेगी, जिसके लिए मैंने बराबर पच्चीस वर्ष तक कष्ट उठाए, सभी भाँति की सुख-सुविधाओं को छोड़ा। वह इस गौरव की रक्षा न कर सकेगा और तुम लोग-तुम सब उसके अनर्थकारी उदाहरण का अनुसरण करके मेवाड़ के पवित्र यश में कलंक लगा लोगे।" प्रताप का वाक्य पूरा होते ही समस्त सरदारों ने उससे कहा, "महाराज! हम लोग बप्पा रावल के पवित्र सिंहासन की शपथ करते हैं कि जब तक हम में से एक भी जीवित रहेगा, उस दिन तक कोई तुर्क मेवाड़ भूमि पर अधिकार न कर सकेगा। जब तक मेवाड़ भूमि की पूर्व-स्वाधीनता का पूरी तरह उद्धार हो नहीं पायेगा, तब तक हम लोग इन्हीं कुटियों में निवास करेंगे।" इस संतोषजनक वाणी को सुनते ही प्रताप के प्राण निकल गए।[15]

इस प्रकार एक ऐसे राजपूत के जीवन का अवसान हो गया, जिसकी स्मृति आज भी प्रत्येक सिसोदिया को प्रेरित कर रही है। इस संसार में जितने दिनों तक वीरता का आदर रहेगा, उतने ही दिन तक प्रताप की वीरता, माहात्म्य और गौरव संसार के नेत्रों के सामने अचल भाव से विराजमान रहेगा। उतने दिन तक वह 'हल्दीघाट मेवाड़ की थर्मोपोली' और उसके अंतर्गत देवीर क्षेत्र 'मेवाड़ का मैराथन' नाम से पुकारा जाया करेगा।



पंडित नरेन्द्र मिश्र की कविता इस प्रकार है-
राणा प्रताप इस भरत भूमि के, मुक्ति मंत्र का गायक है।
राणा प्रताप आज़ादी का, अपराजित काल विधायक है।।
वह अजर अमरता का गौरव, वह मानवता का विजय तूर्य।
आदर्शों के दुर्गम पथ को, आलोकित करता हुआ सूर्य।।
राणा प्रताप की खुद्दारी, भारत माता की पूंजी है।
ये वो धरती है जहां कभी, चेतक की टापें गूंजी है।।
पत्थर-पत्थर में जागा था, विक्रमी तेज़ बलिदानी का।
जय एकलिंग का ज्वार जगा, जागा था खड्ग भवानी का।।
लासानी वतन परस्ती का, वह वीर धधकता शोला था।
हल्दीघाटी का महासमर, मज़हब से बढकर बोला था।।
राणा प्रताप की कर्मशक्ति, गंगा का पावन नीर हुई।
राणा प्रताप की देशभक्ति, पत्थर की अमिट लकीर हुई।
समराँगण में अरियों तक से, इस योद्धा ने छल नहीं किया।
सम्मान बेचकर जीवन का, कोई सपना हल नहीं किया।।
मिट्टी पर मिटने वालों ने, अब तक जिसका अनुगमन किया।
राणा प्रताप के भाले को, हिमगिरि ने झुककर नमन किया।।
प्रण की गरिमा का सूत्रधार, आसिन्धु धरा सत्कार हुआ।
राणा प्रताप का भारत की, धरती पर जयजयकार हुआ।।








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Wednesday, May 6, 2015

महाराणा प्रताप | Maharana Pratap Bharat ka Veer Putra

महाराणा प्रताप | Maharana Pratap Bharat ka Veer Putra

महाराणा प्रताप का जन्म संवत 1597 में हुआ था।
 महाराणा प्रताप का जन्म कुम्भलगढ दुर्ग में हुआ था। महाराणा प्रताप की माता का नाम जैवन्ताबाई था, जो पाली के सोनगरा अखैराज की बेटी थी। महाराणा प्रताप को बचपन में कीका के नाम से पुकारा जाता था। महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक गोगुन्दा में हुआ।

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In 1562, Maharana Udai Singh II  gave refuge to Baz Bahadur of Malwa. Using this as a pretext, Akbar attacked Mewar in October,1567. On October 23, 1567 Akbar formed his camp near Udaipur. According to Kaviraj Shyamaldas, Udai Singh called a council of war. The nobles advised him to take refuge along with the princes in the hills, leaving a garrison at Chittor. Udai Singh retired to Gogunda (which later became his temporary capital) leaving Chittor in the hands of his loyal chieftains Jaimal and Patta. Akbar captured Chittor after a long siege on February 25, 1568.[6][7] He later shifted his capital to Udaipur. He died in 1572 in Gogunda. Before his death, he nominated his fourth son Jagmal as his successor under the influence of his favourite queen and Jagmal's mother Rani Bhattiyani. But after his death, the nobles of Mewar prevented Jagmal from succeeding and placed Maharana Pratap Singh on the throne on March 1, 1572
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महाराणा प्रताप ने अपने जीवन में कुल 11 शादियाँ की थी उनके पत्नियों और उनसे प्राप्त उनके पुत्रों पुत्रियों के नाम है:-

    महारानी अजब्धे पंवार :- अमरसिंह और भगवानदास
    अमरबाई राठौर :- नत्था
    शहमति बाई हाडा :-पुरा
    अलमदेबाई चौहान:- जसवंत सिंह
    रत्नावती बाई परमार :-माल
    लखाबाई :- रायभाना
    जसोबाई चौहान :-कल्याणदास
    चंपाबाई जंथी :- कचरा, सनवालदास और दुर्जन सिंह
    सोलनखिनीपुर बाई :- साशा और गोपाल
    फूलबाई राठौर :-चंदा और शिखा
    खीचर आशाबाई :- हत्थी और राम सिंह

महाराणा प्रताप ने भी अकबर की अधीनता को स्वीकार नहीं किया था। अकबर ने महाराणा प्रताप को समझाने के लिये क्रमश: चार शान्ति दूतों को भेजा।

    जलाल खान कोरची (सितम्बर १५७२)
    मानसिंह (१५७३)
    भगवान दास (सितम्बर–अक्टूबर १५७३)
    टोडरमल (दिसम्बर १५७३)[3]

हल्दीघाटी का युद्ध
मुख्य लेख : हल्दीघाटी का युद्ध.

यह युद्ध १८ जून १५७६ ईस्वी में मेवाड तथा मुगलों के मध्य हुआ था। इस युद्ध में मेवाड की सेना का नेतृत्व महाराणा प्रताप ने किया था। इस युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से लडने वाले एकमात्र मुस्लिम सरदार थे -हकीम खाँ सूरी।

इस युद्ध में मुगल सेना का नेतृत्व मानसिंह तथा आसफ खाँ ने किया। इस युद्ध का आँखों देखा वर्णन अब्दुल कादिर बदायूनीं ने किया। इस युद्ध को आसफ खाँ ने अप्रत्यक्ष रूप से जेहाद की संज्ञा दी। इस युद्ध में बींदा के झालामान ने अपने प्राणों का बलिदान करके महाराणा प्रताप के जीवन की रक्षा की।

महाराणा उदयसिंह की मृत्यु के पश्चात जब प्रतापसिंह गद्दी पर बैठे, भारत के बड़े भूभाग पर मुगल बादशाह अकबर का शासन था। बड़े-बड़े राजा महाराजाओं ने अकबर की आधीनता स्वीकार कर ली थी। वीरों की भूमि राजस्थान के अनेक राजाओं ने न केवल मुगल बादशाह की दासता स्वीकार की अपनी बहू बेटियोें की डोली भी समर्पित कर दी थी। महाराणा प्रताप इसके प्रबल विरोधी थे। उन्होंने मेवाड़ की पूर्ण स्वतन्त्रता का प्रयास जारी रखा और मुगल सम्राट के सामने झुकना कभी स्वीकार नहीं किया। अनेक बार अकबर ने उनके पास सन्धि के लिए प्रस्ताव भेजे और इच्छा व्यक्त की कि महाराणा प्रताप केवल एक बार उसे बादशाह मान ले लेकिन स्वाभिमानी प्रताप ने हर प्रस्ताव को ठुकरा दिया

महाराणा प्रताप और अकबर के बीच दिनांक 18 जून 1576 में हुआ हल्दीघाटी का युद्ध विश्व में प्रसिद्ध हुआ। इस युद्ध में अकबर की सेना का नायक आमेर का राजा मानसिंह था जो अत्यन्त वीर और पराक्रमी था। देवयोग से वह प्रताप के वार से बच निकला। इस युद्ध में प्रताप ने अकबर की विशाल सेना को तहस नहस कर दिया। विजय किसी की नहीं हुई। इसके पश्चात्‌ प्रताप ने छापामार युद्ध प्रणाली अपनायी और अपने जीवनकाल में ही मेवाड़ का अधिकांश भूभाग दुश्मन से मुक्त करा लिया। 

महाराणा प्रताप के जीवन के कुछ प्रसंग उल्लेखनीय हैं। राणा प्रताप अपने अनुज शक्तिसिंह के साथ एक बार आखेट पर गए। शिकार किसने किया इस पर दोनों में विवाद हुआ और दोनों ने तलवार खींच ली। परिस्थिति विकट देखकर साथ गये राजपुरोहित ने कहा यदि लड़ाई बन्द नहीं हुई तो मैं आत्म हत्या कर लूंगा। चेतावनी का असर होता न देख विप्र ने कटार मारकर आत्म हत्या कर ली। परिणाम में दोनों सान्त हुवे, युद्ध टल गया। यदि ऐसा न होता तो कल्पना कीजिए क्या स्थिति होती? इन राज पुरोहित का नाम नारायणदास पालीवाल था। उनके 4 पुत्र थे उनमें से 2 ने हल्दीघाटी युद्ध में भाग लिया था और खेत रहे थे।

जब राणा प्रताप जंगलों में भटक रहे थे। खाने का भी साधन नहीं था। भूखे राजकुमारों को देखकर उनका हृदय द्रवित होगया। उन्होंने सुलह के लिये अकबर को पत्र लिखा। तब बीकानेर के राजा अनुज पृथ्वीराजसिंह बादशाह के दरबार में थे। उन्हें प्रताप पर गर्व था। प्रताप का पढ़ पढ़कर उनकी आत्मा सिहर उठी। उन्होंने एक जोशीला पत्र प्रताप को भेजा जिससे प्रताप का स्वाभिमान जाग उठा और उन्होंने युद्ध करना निश्चित किया। पृथ्वीराज के पत्र की अन्तिम कड़ी थी-
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राव जयमल,मेड़ता
"मरण नै मेडतिया अर राज करण नै जौधा "
"मरण नै दुदा अर जान(बारात) में उदा " 


उपरोक्त कहावतों में मेडतिया राठोडों को आत्मोत्सर्ग में अग्रगण्य तथा युद्ध कौशल में प्रवीण मानते हुए मृत्यु को वरण करने के लिए आतुर कहा गया है मेडतिया राठोडों ने शौर्य और बलिदान के एक से एक कीर्तिमान स्थापित किए है और इनमे राव जयमल का नाम सर्वाधिक प्रसिद्ध है | कर्नल जेम्स टोड की राजस्थान के प्रत्येक राज्य में "थर्मोपल्ली" जैसे युद्ध और "लियोनिदास" जैसे योधा होनी की बात स्वीकार करते हुए इन सब में श्रेष्ठ दिखलाई पड़ता है | जिस जोधपुर के मालदेव से जयमल को लगभग २२ युद्ध लड़ने पड़े वह सैनिक शक्ति में जयमल से १० गुना अधिक था और उसका दूसरा विरोधी अकबर एशिया का सर्वाधिक शक्तिशाली व्यक्ति था |अबुल फजल,हर्बर्ट,सर टामस रो, के पादरी तथा बर्नियर जैसे प्रसिद्ध लेखकों ने जयमल के कृतित्व की अत्यन्त ही प्रसंशा की है | जर्मन विद्वान काउंटनोआर ने अकबर पर जो पुस्तक लिखी उसमे जयमल को "Lion of Chittor" कहा |

राव जयमल का जन्म आश्विन शुक्ला ११ वि.स.१५६४ १७ सितम्बर १५०७ शुक्रवार के दिन हुआ था | सन १५४४ में जयमल ३६ वर्ष की आयु अपने पिता राव विरमदेव की मृत्यु के बाद मेड़ता की गद्दी संभाली | पिता के साथ अनेक विपदाओं व युद्धों में सक्रीय भाग लेने के कारण जयमल में बड़ी-बड़ी सेनाओं का सामना करने की सूझ थी उसका व्यक्तित्व निखर चुका था और जयमल मेडतिया राठोडों में सर्वश्रेष्ठ योद्धा बना |


मेड़ता के प्रति जोधपुर के शासक मालदेव के वैमनस्य को भांपते हुए जयमल ने अपने सीमित साधनों के अनुरूप सैन्य तैयारी कर ली | जोधपुर पर पुनः कब्जा करने के बाद राव मालदेव ने कुछ वर्ष अपना प्रशासन सुसंगठित करने बाद संवत १६१० में एक विशाल सेना के साथ मेड़ता पर हमला कर दिया | अपनी छोटीसी सेना से जयमल मालदेव को पराजित नही कर सकता था अतः उसने बीकानेर के राव कल्याणमल को सहायता के लिए ७००० सैनिकों के साथ बुला लिया | लेकिन फ़िर भी जयमल अपने सजातीय बंधुओं के साथ युद्ध कर और रक्त पात नही चाहता था इसलिय उसने राव मालदेव के साथ संधि की कोशिश भी की, लेकिन जिद्दी मालदेव ने एक ना सुनी और मेड़ता पर आक्रमण कर दिया | पूर्णतया सचेत वीर जयमल ने अपनी छोटी सी सेना के सहारे जोधपुर की विशाल सेना को भयंकर टक्कर देकर पीछे हटने को मजबूर कर दिया स्वयम मालदेव को युद्ध से खिसकना पड़ा | युद्ध समाप्ति के बाद जयमल ने मालदेव से छीने "निशान" मालदेव को राठौड़ वंश का सिरमौर मान उसकी प्रतिष्ठा का ध्यान रखते हुए वापस लौटा दिए |
मालदेव पर विजय के बाद जयमल ने मेड़ता में अनेक सुंदर महलों का निर्माण कराया और क्षेत्र के विकास के कार्य किए | लेकिन इस विजय ने जोधपुर-मेड़ता के बीच विरोध की खायी को और गहरा दिया | और बदले की आग में झुलसते मालदेव ने मौका देख हमला कर २७ जनवरी १५५७ को मेड़ता पर अधिकार कर लिया उस समय जयमल की सेना हाजी खां के साथ युद्ध में क्षत-विक्षत थी और उसके खास-खास योधा बीकानेर,मेवाड़ और शेखावाटी की और गए हुए थे इसी गुप्त सुचना का फायदा मालदेव ने जयमल को परास्त करने में उठाया | मेड़ता पर अधिकार कर मालदेव ने मेड़ता के सभी महलों को तोड़ कर नष्ट कर दिए और वहां मूलों की खेती करवाई | आधा मेड़ता अपने पास रखते हुए आधा मेड़ता मालदेव ने जयमल के भाई जगमाल जो मालदेव के पक्ष में था को दे दिया | मेड़ता छूटने के बाद जयमल मेवाड़ चला गया जहाँ महाराणा उदय सिंह ने उसे बदनोर की जागीर प्रदान की | लेकिन वहां भी मालदेव ने अचानक हमला किया और जयमल द्वारा शोर्य पूर्वक सामना करने के बावजूद मालदेव की विशाल सेना निर्णायक हुयी और जयमल को बदनोर भी छोड़ना पड़ा | अनेक वर्षों तक अपनी छोटी सी सेना के साथ जोधपुर की विशाल सेना मुकाबला करते हुए जयमल समझ चुका था कि बिना किसी शक्तिशाली समर्थक के वह मालदेव से पीछा नही छुडा सकता | और इसी हेतु मजबूर होकर उसने अकबर से संपर्क किया जो अपने पिता हुमायूँ के साथ मालदेव द्वारा किए विश्वासघात कि वजह से खिन्न था और अकबर राजस्थान के उस समय के सर्वाधिक शक्तिशाली शासक मालदेव को हराना भी जरुरी समझता था | जयमल ने अकबर की सेना सहायता से पुनः मेड़ता पर कब्जा कर लिया | वि.स.१६१९ में मालदेव के निधन के बाद जयमल को लगा की अब उसकी समस्याए समाप्त हो गई | लेकिन अकबर की सेना से बागी हुए सैफुद्दीन को जयमल द्वारा आश्रय देने के कारण जयमल की अकबर से फ़िर दुश्मनी हो गई | और अकबर ने एक विशाल सेना मेड़ता पर हमले के लिए रवाना कर दी | अनगिनत युद्धों में अनेक प्रकार की क्षति और अनगिनत घर उजड़ चुके थे और जयमल जनता जनता को और उजड़ देना नही चाहता था इसी बात को मध्यनजर रखते हुए जयमल ने अकबर के मनसबदार हुसैनकुली खां को मेड़ता शान्ति पूर्वक सौंप कर परिवार सहित बदनोर चला गया | और अकबर के मनसबदार हुसैनकुली खां ने अकबर की इच्छानुसार मेड़ता का राज्य जयमल के भाई जगमाल को सौंप दिया |
अकबर द्वारा चित्तोड़ पर आक्रमण का समाचार सुन जयमल चित्तोड़ पहुँच गया | २६ अक्टूबर १५६७ को अकबर चित्तोड़ के पास नगरी नामक गांव पहुँच गया | जिसकी सूचना महाराणा उदय सिंह को मिल चुकी थी और युद्ध परिषद् की राय के बाद चित्तोड़ के महाराणा उदय सिंह ने वीर जयमल को ८००० सैनिकों के साथ चित्तोड़ दुर्ग की रक्षा का जिम्मा दे स्वयम दक्षिणी पहाडों में चले गए | विकट योद्धों के अनुभवी जयमल ने खाद्य पदार्थो व शस्त्रों का संग्रह कर युद्ध की तैयारी प्रारंभ कर दी | उधर अकबर ने चित्तोड़ की सामरिक महत्व की जानकारिया इक्कठा कर अपनी रणनीति तैयार कर चित्तोड़ दुर्ग को विशाल सेना के साथ घेर लिया और दुर्ग के पहाड़ में निचे सुरंगे खोदी जाने लगी ताकि उनमे बारूद भरकर विस्फोट कर दुर्ग के परकोटे उड़ाए जा सकें,दोनों और से भयंकर गोलाबारी शुरू हुई तोपों की मार और सुरंगे फटने से दुर्ग में पड़ती दरारों को जयमल रात्रि के समय फ़िर मरम्मत करा ठीक करा देते |
अनेक महीनों के भयंकर युद्ध के बाद भी कोई परिणाम नही निकला | चित्तोड़ के रक्षकों ने मुग़ल सेना के इतने सैनिकों और सुरंगे खोदने वालो मजदूरों को मारा कि लाशों के अम्बार लग गए | बादशाह ने किले के निचे सुरंगे खोद कर मिट्टी निकालने वाले मजदूरों को एक-एक मिट्टी की टोकरी के बदले एक-एक स्वर्ण मुद्राए दी ताकि कार्य चालू रहे | अबुलफजल ने लिखा कि इस युद्ध में मिट्टी की कीमत भी स्वर्ण के सामान हो गई थी | बादशाह अकबर जयमल के पराकर्म से भयभीत व आशंकित भी थे सो उसने राजा टोडरमल के जरिय जयमल को संदेश भेजा कि आप राणा और चित्तोड़ के लिए क्यों अपने प्राण व्यर्थ गवां रहे हो,चित्तोड़ दुर्ग पर मेरा कब्जा करा दो मै तुम्हे तुम्हारा पैत्रिक राज्य मेड़ता और बहुत सारा प्रदेश भेंट कर दूंगा | लेकिन जयमल ने अकबर का प्रस्ताव साफ ठुकरा दिया कि मै राणा और चित्तोड़ के साथ विश्वासघात नही कर सकता और मेरे जीवित रहते आप किले में प्रवेश नही कर सकते |
जयमल ने टोडरमल के साथ जो संदेश भेजा जो कवित रूप में इस तरह प्रचलित है
है गढ़ म्हारो म्है धणी,असुर फ़िर किम आण |
कुंच्यां जे चित्रकोट री दिधी मोहिं दीवाण ||
जयमल लिखे जबाब यूँ सुनिए अकबर शाह |
आण फिरै गढ़ उपरा पडियो धड पातशाह ||एक रात्रि को अकबर ने देखा कि किले कि दीवार पर हाथ में मशाल लिए जिरह वस्त्र पहने एक सामंत दीवार मरम्मत का कार्य देख रहा है और अकबर ने अपनी संग्राम नामक बन्दूक से गोली दाग दी जो उस सामंत के पैर में लगी वो सामंत कोई और नही ख़ुद जयमल मेडतिया ही था | थोडी ही देर में किले से अग्नि कि ज्वालाये दिखने लगी ये ज्वालाये जौहर की थी | जयमल की जांघ में गोली लगने से उसका चलना दूभर हो गया था उसके घायल होने से किले में हा हा कार मच गया अतः साथी सरदारों के सुझाव पर जौहर और शाका का निर्णय लिया गया ,जौहर क्रिया संपन्न होने के बाद घायल जयमल कल्ला राठौड़ के कंधे पर बैठकर चल पड़ा रणचंडी का आव्हान करने | जयमल के दोनों हाथो की तलवारों बिजली के सामान चमकते हुए शत्रुओं का संहार किया उसके शौर्य को देख कर अकबर भी आश्चर्यचकित था | इस प्रकार यह वीर चित्तोड़ की रक्षा करते हुए दुर्ग की हनुमान पोल व भैरव पोल के बीच लड़ते हुए वीर गति को प्राप्त हुवा जहाँ उसकी याद में स्मारक बना हुआ है |
इस युद्ध में वीर जयमल और पत्ता सिसोदिया की वीरता ने अकबर के हृदय पर ऐसी अमित छाप छोड़ी कि अकबर ने दोनों वीरों की हाथी पर सवार पत्थर की विशाल मूर्तियाँ बनाई | जिनका कई विदेश पर्यटकों ने अपने लेखो में उल्लेख किया है | यह भी प्रसिद्ध है कि अकबर द्वारा स्थापित इन दोनों की मूर्तियों पर निम्न दोहा अंकित था |
जयमल बड़ता जीवणे, पत्तो बाएं पास |
हिंदू चढिया हथियाँ चढियो जस आकास ||
हिंदू,मुस्लमान,अंग्रेज,फ्रांसिस,जर्मन,पुर्तगाली आदि अनेक इतिहासकारों ने जयमल के अनुपम शौर्य का वर्णन किया है |


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वामी दयानंद एवं चित्तोड़

स्वामी दयानंद अपने चित्तोड़ भ्रमण के समय चित्तोड़ के प्रसिद्द किले को देखने गए। किले की हालत एवं राजपूत क्षत्राणियों के जौहर के स्थान को देखकर उनके मुख से निकला की अगर ब्रह्मचर्य की मर्यादा का मान होता तो चित्तोड़ का यह हश्र नहीं होता। काश चित्तोड़ में गुरुकुल की स्थापना हो जिससे ब्रह्मचर्य धर्म का प्रचार हो सके।

स्वामी दयानंद के चित्तोड़ सम्बंधित चिंतन में ब्रह्मचर्य पालन से क्या सम्बन्ध था यह इतिहास के गर्भ में छिपा सत्य हैं। जिस समय चित्तोड़ का अकबर के हाथों विध्वंश हुआ उस समय चित्तोड़ पर वीर बप्पा रावल के वंशज, राणा सांगा के पुत्र उदय सिंह का राज था। समस्त राजपुताना में चित्तोड़ एक मात्र रियासत थी जिसने अपनी बेटी का डोलना मुगलों के हरम में नहीं भेजा था। अकबर के लिए यह असहनीय था की जब तक चित्तोड़ स्वतंत्र हैं तब तक भारत विजय का अकबर का स्वपन अधूरा हैं। राणा उदय सिंह वैसे तो वीर था मगर अपने पूर्वजों से महानता एवं दूरदृष्टि से विमुख था। उसमें भोग विलास की मात्र अधिक थी इसीलिए उसका जीवन उसकी दर्जनों रानियाँ और उनके अनेकों बच्चों में उलझा रहता था। यही कारण था की महाराणा प्रताप ने एक बार कहा था कि अगर दादा राणा सांगा जी के पश्चात मेवाड़ की गद्दी पर वह बैठते तो मुगलों को कभी इतना शक्तिशाली न होने देते। राजपुताना के बाकि राजपूतों की दशा भी कोई भिन्न न थी।
              जब अकबर ने चित्तोड़ पर आक्रमण किया तब उदय सिंह ने उसकी रक्षा करने के स्थान पर भाग जाना बेहतर समझा। अभागा हैं वह देश जिसमें आपत्ति काल में उसका मुखिया साथ छोड़ दे। बारूद से शून्य किला बच सकता हैं मगर किलेदार से शून्य किला नहीं बच सकता। यहाँ तक कि चित्तोड़ के घेराव के समय भी उदय सिंह ने बाहर बैठकर कुछ नहीं किया। मगर चित्तोड़ राजपूताने  मस्तक था, मान था। जयमल जैसे वीर सरदार अभी जीवित थे। एक ओर अकबर कि 25 हजार सेना, 3000 हाथी एवं 3 बड़े तोपखाने थे वही दूसरी ओर संसाधन रहित स्वाधीनता से प्रेम करने वाले 5000 वीर राजपूत थे। राजपूत एक ओर मुग़ल सेना से लड़ते जाते दूसरी ओर तोपों कि मार से दह रही दीवारों का निर्माण करते जाते। युद्ध 6 मास से अधिक हो चला था। एक दिन किले की दीवार के सुराख़ के छेद में से अकबर ने अपनी बन्दुक से एक तेजस्वी पुरुष को निशाना साधा। उस गोली से जयमल का स्वर्गवास हो गया। राजपूतों ने एक युवा पत्ता को अपना सरदार नियुक्त किया। पत्ता की मूछें भी ठीक से नहीं उगी थी मगर मातृभूमि पर प्राण न्यौछावर करने के लिए सभी राजपूत तैयार थे। आज अलग दिन था। सभी राजपूतों ने केसरिया बाना पहना, कमर पर तलवार बाँधी और युद्ध के लिए रवाना हो गए। राजपूतों ने जब देखा कि किले की रक्षा अब असंभव हैं तो उन्होंने अंतिम संग्राम का मन बनाया। किले के दरवाजे खोल दिए गए। मुग़ल सेना अंदर घुसते ही राजपूतों की फौलादी छाती से टकराई। उस अभेद्य दिवार को तोड़ने के अकबर ने मदमस्त हाथी राजपूतों पर छोड़ दिए। अनेक हाथियों को राजपूतों ने काट डाला, अनेक राजपूत स्वर्ग सिधार गए। अंत में पत्ता लड़ते लड़ते थक का बेहोश हो गया। एक हाथी ने उसे अपनी सूंड में उठा कर अकबर के सामने पेश किया। बहादुर पत्ता के प्राण थोड़ी देर में निकल गए मगर अकबर  उसकी बहादुरी और देशभक्ति का प्रशंसक बन गया। इस युद्ध में 30000 आदमी काम आये, जिनमें लड़ाकू राजपूतों के अतिरिक्त चित्तोड़ की आम जनता भी थी। युद्ध के पश्चात मृत बहादुरों के शरीर से उतरे जनेऊ  का तोल साढ़े सतावन मन था। उस दिन से राजपूताने में साढ़े सतावन का अंक अनिष्ट माना जाता हैं। किले के अंदर राजपूत क्षत्राणियों ने जौहर कर आत्मदाह कर लिया। अकबर ने यह युद्ध हाथियों कि दिवार के पीछे खड़े होकर जीता था। राजपूत चाहते तो आत्मसमर्पण कर देते मगर उनका लक्ष्य शहिद होकर सदा के लिए अमर होना था। युद्ध के इस परिणाम से महान आर्य रक्त की बड़ी हानि हुई।
                     यह हानि होने से बच सकती थी अगर राजपूतों की भोगवादी प्रवृति न होती। राजपूतों में न एकता थी और न ही दूरदृष्टी थी। अगर होती तो मान सिंह जैसे राजपूत अपनी सेनाओं के साथ अपने ही भाइयों से न लड़ते और अकबर के साम्राज्य की नीवों को मजबूत करने में जीवन भर प्रयत्न न करते। अगर होती तो उदय सिंह अपना ही राज्य छोड़कर जाने से अधिक लड़ते लड़ते मर जाना अधिक श्रेयकर समझता।  शराब, अफीम एवं अनेक स्त्रियों के संग ने राजपूतों के गर्म लहू को यहाँ तक जमा दिया था कि बात बात पर मूछों को तांव देने वाले राजपूत अपनी बहन और बेटियों को मुग़लों के हरम में भेजने में भी परहेज नहीं कर रहे थे।

 स्वामी दयानंद का चिंतन इसी दुर्दशा का ईशारा कर रहा था कि जहाँ पर भोग होगा, प्राचीन धार्मिक सिद्धांतों का अपमान होगा, ब्रह्मचर्य का अभाव होगा वहां पर नाश निश्चित हैं। इसीलिए चित्तोड़ के दुर्ग को देखकर सन 1567 में हुए विनाश का कारण स्वामी जी के मुख से निकला।आज हिन्दू समाज को अगर अपनी रक्षा करनी हैं तो उसे वेद विदित आर्य सिद्धातों का अपने जीवन में पालन अनिवार्य बनाना होगा अन्यता इतिहास अपने आपको दोहराने से पीछे नहीं हटेगा।
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महाराणा संग्रामसिंह [ सांगा ] 1509 से 1528
--रायमल के तीन पुत्रों जयमल पृथ्वीराज और सांगा के बीच संघर्ष
--सांगा बचकर अजमेर चले गए
-- दोनों भाइयो की मृत्यु के बाद सांगा शासक बना।
--1517 में दिल्ली के  इब्राहिम लोदी और सांगा के बीच बूंदी के निकट खतोली का युद्ध
--सांगा विजयी
--सांगा और महमूद ख़िलजी 2nd का के बीच  1519 गागरोन का युद्ध
--सांगा विजयी
--1519 में ही बाड़ी [ धौलपुर ] का युद्ध सांगा & इब्राहिम लोदी
--सांगा विजयी
--1526 में पानीपत का प्रथम युद्ध सांगा & बाबर के साथ
--बाबर की विजय
--1527 खानवा का युद्ध सांगा & बाबर
--बाबर विजयी
--1527  में ही बयाना का युद्ध सांगा  & बाबर की तरफ से सुल्तान मिर्ज़ा
--सांगा विजयी
--बाबर ने गाज़ी की उपाधि धारण की
--बाबर ने ही खानवा के युद्ध को जिहाद का नारा दिया
--1528 में सांग की मृत्यु
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महाराणा उदयसिंह 1537 -1572
--1540 शासक बने
--उदयसिंह ने 1544 में शेरशाह सूरी की अधीनता स्वीकार की
--1567 में अकबर और उदयसिंह के बीच युद्ध हुआ , अकबर विजयी
-- चित्तौड़ में क़त्ल-ऐ -आम का आदेश दिया
--1568 में चित्तौड़ पर अधिकार हो गया और मेवाड़ का तीसरा जौहर हुआ
1572 में उदयसिंह का गोगुन्दा में निधन
--जयमल & पत्ता की वीरता के कारन आगरा के किले पर अकबर ने हठी पर पत्थर की मुर्तिया लगवाई
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महाराणा प्रतापसिंह 1572 - 1597
--प्रताप का जन्म  मई 1940 को कुम्भलगढ़ में
--पिता उदयसिंह, माता जैवन्ता बाई
--उपनाम - कीका
--बचपन कुम्भलगढ़ में बिता
--उदयसिंह ने जगमाल को उत्तराधिकारी बनाया
--अखेराज सोनगरा ने प्रताप को गद्दी पर बिठाया कृष्णदास ने राजकीय तलवार बांधी और 28 feb 1572 को गोगुन्दा में राज्यभषेक हुआ।
--1572 से 1573 के बीच 4 मंडल प्रताप के पास भेजे गए अधीनता स्वीकार करने हेतु
-----1 -- जलाल खां
-----2  --मानसिंह
-----3  --भगवंत दास
-----4  --टोडरमल
--हल्दीघाटी युद्ध की रणनीति अकबर का किला , अजमेर में बनी
--21 जून 1576 को हल्दीघाटी का युद्ध हुआ
--अबुल फज़ल ने इसे खमनौर का युद्ध कहा है
--कर्नल टॉड ने इसे मेवाड़ की थर्मोपोली कहा है
--हाकिम खां सूरी महाराणा प्रताप के सेनापति थे
--बदाँयूनी ने इसे गोगुन्दा का युद्ध कहा है
--भामाशाह ने प्रताप को आर्थिक संकट के समय अपना धन दिया था
--भामाशाह का उपनाम - "मेवाड़ का उद्धारक" , कर्नल टॉड ने  "मेवाड़ का कर्ण" कहा है
--अकबर प्रताप को बंदी बनाना चाहता था परन्तु वह कभी नहीं पकड़ सका
--प्रताप ने 1585 में लूणा चावण्डिया को हराकर चावंड को अपनी राजधानी बनाया
--1582 में प्रताप ने मुगलो को हराया - कर्नल टॉड ने इसे  मेवाड़ का मैराथन कहा है।
--19 जनवरी 1597 को प्रताप का स्वर्गवास हो गया।
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 --महाराणा अमरसिंह 1597 - 1620
--अकबर की 1605 में मृत्यु के बाद जहाँगीर शासक बना
--अमरसिंह ने कुँवर कर्णसिंह के माध्यम से जहाँगीर से संधि की
--आहड़  में अमरसिंह की मृत्यु व छतरी का निर्माण
--कर्णसिंह 1620 -1628
--1628 में जगतसिंह प्रथम गद्दी पर बैठे
--पिछोला झील में जगमंदिर महल बनवाया
--राजसिंह 1652 -1680
--राजसिंह औरंगज़ेब के समकालीन थे
--किशनगढ़ की राजकुमारी चारुमति को  मतभेद
--राजकुमारी के आग्रह पर विवाह राजसिंह से हुआ
--राजसमन्द झील का निर्माण करवाया
--औरंगज़ेब के पुत्र अकबर को भी संरक्षण दिया
--कांकरोली में द्वारकाधीश का मंदिर भी बनवाया
--महाराणा जयसिंह ने जयसमंद झील का निर्माण करवाया
--अमरसिंह द्धितीय 1698 -1710
--अमरसिंह 2 nd ने जोधपुर आमेर मुगलो से मुक्त कराया और अजीतसिंह और सवाई जयसिंह की मदद की
--संग्रामसिंह 2nd --1710 -1734 -हुरडा सम्मलेन का अध्यक्ष चुना गया
--सम्मलेन आयोजित होने  इनकी मृत्यु हो जाने के कारन अध्यक्षता नहीं कर पाये
--जगतसिंह 2nd 1734 में शासक बने
--हुरडा सम्मलेन की अध्यक्षता की
--1778 भीमसिंह मेवाड़ की गद्दी पर बैठे
--इनकी पुत्री कृष्णा कुमारी को लेकर जोधपुर जयपुर में संघर्ष हुआ
--इसे गिन्गोली  का युद्ध कहा जाता है जिसमे जयपुर विजयी
--कृष्णा कुमारी की जहर से मृत्यु
--1818 में ईस्ट इंडिया कंपनी से संधि की
--1857 की क्रांति के समय मेवाड़ के शासक स्वरुप सिंह थे।







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Sunday, May 3, 2015

News : अल कायदा के वीडियो में पहली बार मोदी का जिक्र, बताया इस्लाम का दुश्मन- 7joke.blogspot.com

News : अल कायदा के वीडियो में पहली बार मोदी का जिक्र, बताया इस्लाम का दुश्मन- 7joke.blogspot.com


Al-Qaeda's India wing chief Asim Umar mentioned said that there is a war going on against Muslims through World Bank and IMF policies, drone attacks, Charlie Hebdo's writings and Narendra Modi's utterances.

अल कायदा की भारतीय उपमहाद्वीप शाखा द्वारा पोस्ट ताजा वीडियो में पहली बार भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम लिया गया है। यह वीडियो अल कायदा की मीडिया विंग अस-शबाब द्वारा ने पोस्ट किया है।


इस वीडियो का टाइटल है- 'फ्रॉम फ्रांस टू बांग्लादेश: द डस्ट विल नेवर सेटल डाउन'

इस वीडियो में जिस आसिम उमर नाम के आतंकी की आवाज़ है वो भारतीय है. उसने देवबंद में पढाई की है. आतंकी आसिम उमर 1990 में पाकिस्तान चला गया था.


2 मई को 'फ्रॉम फ्रांस टू बांग्लादेश: द डस्ट विल नेवर सेटल डाउन' टाइटल वाले इस वीडियो में अल कायदा के भारतीय उपमहाद्वीप प्रमुख आसिम उमर की आवाज है। आसिम ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम का जिक्र करते हुए कहा कि दुनियाभर में मुस्लिमों के खिलाफ युद्ध लड़ा जा रहा है। उसने कहा कि हमारी कौम के खिलाफ जारी यह युद्ध वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ पॉलिसी, ड्रोन हमलों, चार्ली हेब्दो के कार्टून, संयुक्त राष्ट्र के घोषणापत्रों और नरेंद्र मोदी की कड़वी जुबान के जरिए लड़ा जा रहा है। इसमें कहा गया कि इस्लाम के खिलाफ नरेंद्र मोदी की 'खून टपकाती जुबान' के जरिए जंग लड़ी जा रही है
वीडियो में आसिम उमर कहता है, "एक ही जंग है, चाहे ड्रोन ले लड़ी जाए, या चार्ली हेब्दो के करम से। आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक की पॉलिसियों से लड़ी जाए। नरेंद्र मोदी की खून टपकाती जुबान से लड़ी जाए या मुसलमानो को जिंदा जला दिए जाने के जरिए से।"
भारतीय खुफिया एजेंसियों के अनुसार, वीडियो की जांच की जा रही है
वीडियो में अल कायदा ने 27 फरवरी को ढाका में बांग्लादेश में जन्मे अमेरिकी ब्लॉगर अविजीत रॉय सहित चार बांग्लादेशी ब्लॉगर्स की हत्या की जिम्मेदारी भी ली। गौरतलब है कि 27 फरवरी को ढाका में कुछ हमलावरों ने चाकू मारकर अविजीत रॉय की हत्या कर दी थी। इस हमले में उनकी पत्नी बुरी तरह घायल हो गई थीं।
संगठन ने बांग्लादेशी ब्लॉगर्स ओयासिकर रहमान बाबू, राजीब हैदर और शफिउल इस्लाम की हत्या की जिम्मेदारी भी ली।
उमर ने वीडियो में कहा, "इस्लाम के खिलाफ लिख रहे लोगों की हत्या का मिशन पाकिस्तान से शुरू हुआ था। हमने सेक्युलर डॉक्टर शकील उज और ब्लॉगर अनीका नाज की हत्या की।"
गौरतलब है कि पिछले साल अल कायदा चीफ अयमान अल-जवाहिरी ने भारतीय उपमहाद्वीप में संगठन की नई शाखा शुरू किए जाने की घोषणा की थी। जवाहिरी के मुताबिक, यह शाखा बर्मा, बांग्लादेश, भारत के उत्तरी-पूर्वी राज्यों में अपनी गतिविधियां शुरू कर चुकी है। आसिम उमर को इस संगठन का चीफ घोषित किया गया था।




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Saturday, May 2, 2015

Amazing Lovely Performance by School Children

#Amazing Lovely Performance by School Children





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Friday, May 1, 2015

महिला.....सेठ जी लाल मिर्च देना।


महिला.....सेठ जी लाल मिर्च देना।
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सेठ(पास खडे नौकर से).....हरी मिर्च देना।
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महिला.....सेठ जी मैने लाल मिर्च बोली है।
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सेठ.......हरी मिर्च देना जल्दी।
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महिला(गुस्से से लाल).....सेठ तुम पागल हो क्या?मैने लाल मिर्च मांगी है।😬
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सेठ.....बहिन जी ज्यादा गुस्सा मत करो.....
ठण्ड रखो ठण्ड.......


लाल मिर्च ही देंगे....हरी तो इस नौकर का नाम है



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Samay

Samay






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IQ TEST !!!! एक लङका एक लङकी से उसका नाम पूछता है



IQ TEST !!!!
एक लङका एक लङकी से उसका नाम
पूछता है
तो वह कहती है कि मेरा नाम
मेरी कार की नम्बर प्लेट में छुपा है
कार का नंबर था-WV733N
लङकी का नाम क्या था???





Answer- Neelam,
Ulta Dekhkar padoo, Ya fir Mobile mein pick khunchkar Ulta Pado, Answer Mil Jayegaaa


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News यूपीः मुस्लिम से हिंदू बने 17 लोगों ने फिर अपनाया इस्लाम, करना पड़ा निकाह

News यूपीः मुस्लिम से हिंदू बने 17 लोगों ने फिर अपनाया इस्लाम, करना पड़ा निकाह





आगरा. उत्तर प्रदेश में एक बार फिर धर्मांतरण का मामला सामने आया है। मुस्लिम से हिंदू बने 17 लोगों ने शुक्रवार को दोबारा मुस्लिम धर्म अपना लिया। जानकारी के मुताबिक, इन्होंने 25 दिसंबर, 2014 को हिंदू धर्म अपनाया था। शुक्रवार को इन सभी को शहर मुफ्ती अहले सुन्‍नत मुदर्स्सिर खान कादरी और तंजीम उलेमा अहले सुन्‍नत के पदाधिकारी इस्‍लामुद्दीन कादरी ने एक शादी समारोह में कलमा पढ़वाया।

मामला आगरा के अछनेरा ब्‍लॉक के महुअर लाठिया गांव का है। दोबारा मुस्लिम बनने वालों में रहमत (70), उनका बेटा रवि उर्फ मोहम्मद आरिफ, पत्‍नी नफीसा, मुन्‍ना उर्फ अली मोहम्‍मद और पत्‍नी शाजिया, राजू उर्फ शौकत और पत्‍नी सलमा, लियाकत और उनके बच्‍चे शामिल हैं। ये नट जाति के हैं। इस्लाम अपनाने के साथ ही उन्हें दोबारा निकाह भी करना पड़ा।

'समय खराब था जो हिंदू बने, बेटों ने डाला था दबाव'
धर्म परिवर्तन करने वाले रहमत ने बताया कि उनका समय खराब था, जो हिंदू बन गए थे। उस समय बेटों ने दबाव डाला था। रहमत के बेटे मुन्‍ना उर्फ अली मोहम्‍मद ने कहा कि हिंदू नेता लव शुक्‍ला ने उन्हें धर्म परिवर्तन करने पर जमीन दिलाने की बात कही थी। वह गांव में सार्वजनिक जमीन पर झोपड़ी में रहते हैं। दिसंबर 2014 में यह जमीन दलितों को आवंटित कर दी गई थी। उस वक्‍त परिवार को यहां से बेदखल होने का खतरा महसूस होने लगा था। तब लव शुक्‍ला ने कहा था कि धर्म परिवर्तन कर लो तो जमीन मिल जाएगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

दोबारा मुस्लिम बनने पर ही शादी समारोह में मिली जाने की अनुमति

धर्म परिवर्तन के बाद से मुस्लिम नट बिरादरी ने उन्हें शादी और अन्‍य समारोहों में बुलाना बंद कर दिया था। शुक्रवार को ये सभी रसुलपुर गांव में एक शादी समारोह में पहुंचे। वहां लोगों ने उनसे कहा कि इस्‍लाम धर्म कबूल करने पर ही शादी समारोह में शामिल होने की अनुमति दी जाएगी। इसके बाद अचानक पूरे परिवार ने दोबारा मुस्लिम बनने का फैसला कर लिया।


दोबारा मुस्लिम बनने पर फिर से हो रहा है इनका निकाह

शहर मुफ्ती ने बताया कि इस्‍लाम धर्म को छोड़ते ही निकाह खारिज हो जाता है। इसलिए जब इन लोगों ने फिर से इस्‍लाम कबूल किया है, तो इनका दोबारा निकाह पढ़वाया जा रहा है। निकाह कबूल करने के बाद अब वे शादीशुदा जिंदगी गुजार सकेंगे। अभी तक इनका साथ रहना हराम था। दोबारा मुस्लिम बनने वालों का कहना है कि शादी समारोह के दौरान ही शहर मुफ्ती को बुलाया गया। वहां उन्‍होंने रहमत और उसके बेटे रवि उर्फ मोहम्मद आरिफ को कलमा पढ़वाकर इस्‍लाम कबूल करवाया। इसके बाद सभी मिढाकुर स्थित मदरसा जिया-उल-उलूम पहुंचे। वहां पर मुन्‍ना उर्फ अली मोहम्मद और शौकत भी पहुंचे। शहर मुफ्ती ने उन्‍हें कलमा पढ़ाया। इसके बाद मोहम्मद आरिफ और नफीसा का निकाह पढ़वाया गया।


14 मई को होगी पंचायत, नट बिरादरी में शामिल होने का होगा फैसला
इस्‍लाम धर्म में वापसी के बाद 17 सदस्‍यीय परिवार की अपील पर 14 मई को पंचायत बुलाने का फैसला हुआ है। यह पंचायत नट बिरादरी की होगी। रहमत ने बताया कि इसमें उनका पूरा परिवार बिरादरी में शामिल करने के लिए पंचों को मनाएगा। उन्‍हें उम्‍मीद है कि इस पंचायत में समाज के सारे गिले-शिकवे दूर हो जाएंगे। पंचायत की जगह एक सप्‍ताह में तय हो जाएगी


News Sabhaar : http://www.bhaskar.com/news/UP-AGRA-17-hindus-convert-their-religion-to-islam-again-4980351-PHO.html  May 01, 2015, 18:45 PM IST




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Shiksha Vyvasthaa Ki Pol Khulee, Ayogya Shikshak Kar Rahe Hain Shiksha Vyavastha Ka Satyanaash

Shiksha Vyvasthaa Ki Pol Khulee, Ayogya Shikshak Kar Rahe Hain Shiksha Vyavastha Ka Satyanaash

Shikshkon Ko Desh Ke Prdhan Mantraa Ka Naam Nahin Pata,

Chief Minster Kon Hota Hai Ye Nahin Pata,

Desh Kee Rajdhanee Nagin Pata

Desh Pradesh Kya Hota Hai Ye Nahin Pata

Bal Divas Kab Hota Hai Ye Nhain Pata

Eight kee Speling Nahin Pata

Aur Aise Shikshak Pada Rahe Hain Sarkaree Schools Mein

Aise Sarkaee Schools Ke  Shikshak Kar Rahe Hain Shiksha Vyavastha Ka Satyanaash.

ABSA Ne Mana Kee Bahut Saare Shikshak Kar Rahe Hain Shiksha Ko Chopat, Aur Inka Star Bahut Gira Hua Hai.
Lekin Vo Kehte Hain ki Ham Kya Kar Sakte hain.

Ye Hai Sarkareee Schools ka Haal


Pol Khol Video Neech Deeye Link par Click Karke Dekhee Jaa Saktee Hai







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Thursday, April 30, 2015

News : पेट्रोल 4 रुपये महंगा, डीजल की कीमत में 2.37 रुपये की बढो़तरी

#News : पेट्रोल 4 रुपये महंगा, डीजल की कीमत में 2.37 रुपये की बढो़तरी

Thu, 30 Apr 2015

नई दिल्ली। पेट्रोलियम कंपनियों ने शुक्रवार से पेट्रोल और डीजल के दाम में बढ़ोतरी कर दी है। अब पेट्रोल 3.96 रुपये तथा डीजल 2.37 रुपये महंगा हो जाएगा। यह कीमतें आज आधी रात से लागू हो जाएंगी।
कीमतों में बढ़ोतरी के बाद दिल्ली में 63.16 रुपये, मुंबई में 70.65 पैसे, चेन्नई में 65.86 रुपये और कोलकाता में 70.77 रुपये प्रति लीटर हो गया है। वहीं डीजल की नई दर दिल्ली में 49.57 रुपये, मुंबई में 56.63 रुपये, चेन्नई में 53.58 रुपये और कोलकाता में 54.45 रुपये हो गई है।



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News पाकिस्तान ने नेपाल राहत सामग्री भेजा '#बीफ मसाला' , मचा हंगामा #Beef-Masala

#News पाकिस्तान ने नेपाल राहत सामग्री भेजा '#बीफ मसाला' , मचा हंगामा #Beef-Masala



नेपाल में गो मांस पर पांबदी है. आरोप सिद्ध होने पर 12 साल की सजा होती है


25 अप्रैल को आए भूकंप की त्रासदी के बाद सभी देश नेपाल को अपनी तरफ से हरसंभव मदद भेजने में लगे हैं। भारत ने तो अपने सभी संसाधन नेपाल के लिए खोल दिए हैं और तेजी से राहत-बचाव कार्य के अंजाम दिया जा रहा है।लेकिन इस बीच नेपाल को पाकिस्तान ने राहत पैकेज में ऐसी चीज भेजी है जिसे देख सभी लोग हैरान हैं और कोई भी इसे हाथ लगाने को तैयार नहीं है।
दरअसल पाकिस्तान की ओर से भेजी गई राहत सामग्री में 'बीफ मसाला' के पैकेट हैं। नेपाल में गोवध पर पूरी तरह प्रतिबंध है। ऐस में पाकिस्तान से इस तरह की सामग्री आने से लोगों में हैरत है। अब कोई भी इन पैकेट को छूने को तैयार नहीं है। बीफ मसाला भरे कई पैकेट ट्रकों में ही पड़े हुए हैं।
काठमांडू के अस्पताल में तैनान भारतीय डॉक्टरों ने अंग्रेजी वेबसाइट से बातचीत में बताया कि मंगलवार को पाकिस्तान की ओर से भेजी गई राहत सामग्री में बीफ मसाला के पैकेट्स हैं। भारत की ओर से 34 सदस्यीय चिकित्सा दल नेपाल भेजा गया है। इन्हीं में शामिल डॉ. बलविंदर सिंह ने कहा कि जब हम खाद्य सामग्री लेने एयरपोर्ट पहुंचे तो देखा कि पाकिस्तान से आई राहत सामग्री में बीफ मसाले के पैकेट भी हैं। तबसे हमने इसे छुआ तक नहीं है।









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Sunday, April 26, 2015

Amazing #Video #Haath Ka #Kamaal

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Saturday, April 25, 2015

#Amazing #Video - Balancing & Performance by a Girl

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Rashtrabhakti #Deshbhakti

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Kya Is se #Mahilaon Par #Apradh kam Honge, Must Watch #Video

Kya Is se #Mahilaon Par #Apradh kam Honge, Must Watch Video ,
Kya Court ko Aise Punishment Dene Chahiye

Aapki Ray, Must Watch #Video





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#Akhilesh Ji & #Bijleee

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Most Surprising , #Unbelievable #Dolphin #Video, #Karishma Dolphin Mush Watch Video - Highly Recommended to See

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Friday, April 24, 2015

शहर की लडकी अगर गली में कुत्ता भी देख ले तो OMG क्या करूं ...


शहर की लडकी अगर गली में कुत्ता भी देख ले तो OMG क्या करूं ... 

 गाँव की छोरी सांड भी आ जाए तो उसे ऐसे भगाएगी जैसे कोई कुत्ता हट हुर्र्र हट कुत्ते ll



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#गजेंद्र के परिवार की मदद को CM अखिलेश ने बढ़ाया हाथ

#गजेंद्र के परिवार की मदद को CM अखिलेश ने बढ़ाया हाथ

 समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी ने जानकारी देते हुए कहा, "यूपी सीएम और समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव ने राजस्थान के दौसा जिले के रहने वाले किसान गजेंद्र सिंह कल्याणवत के परिवार को पांच लाख रुपये की आर्थिक मदद देंगे।"

मुख्यमंत्री ने कहा कि किसान के परिवार को हरसंभव मदद दी जाएगी।

गजेंद्र सिंह के परिवार को AAP देगी 10 लाख

Pariwar ke Ek Sadasya ko Delhi Sarkar Mein Nokri va Gajendra ko Saheed ka Darja Dene Kee Maang Par bhee Kar Rahee Vichaar.

Aashutosh Fafak fafak kar ro pade, Kejriwal ne Kaha kee Pooree Rat Neend nahin Aayee. Mafee mangee kee Bhashan Jaree nahin Rakhna chahiye thaaa


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गजेंद्र ना गरीब थे ना कर्ज़दार - 

भरा-पूरा परिवार, सुखी गृहस्थी, संयुक्त परिवार की 35 बीघा से ज्यादा पुश्तैनी कृषि भूमि में बना हुआ फ़ार्म हाउस. नांगल झामरवाडा, राजस्थान के गजेंद्र सिंह की छवि उन ग़रीब किसानों से कहीं मेल नहीं खाती जो क़र्ज़ और बेहद ग़रीबी से मजबूर हो ख़ुदकुशी करते हैं
http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2015/04/150423_gajendra_singh_rajasthan_farmer_rns


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