आइये अपने 16 संस्कारों के बारे में जानें ...
1.गर्भाधान संस्कार - ये सबसे पहला संस्कार है l बच्चे के जन्म से पहले माता -पिता अपने परिवार के साथ गुरुजनों के साथ यज्ञ करते हैं और इश्वर को प्रार्थना करते हैं की उनके घर अच्छे बचे का जन्म हो, पवित्र आत्मा, पुण्यात्मा आये l जीवन की शुरूआत गर्भ से होती है। क्योंकि यहां एक जिन्दग़ी जन्म लेती है। हम सभी चाहते हैं कि हमारे बच्चे, हमारी आने वाली पीढ़ी अच्छी हो उनमें अच्छे गुण हो और उनका जीवन खुशहाल रहे इसके लिए हम अपनी तरफ से पूरी पूरी कोशिश करते हैं। ज्योतिषशास्त्री कहते हैं कि अगर अंकुर शुभ मुहुर्त में हो तो उसका परिणाम भी उत्तम होता है। माता पिता को ध्यान देना चाहिए कि गर्भ धारण शुभ मुहुर्त में हो। ज्योतिषशास्त्री बताते हैं कि गर्भधारण के लिए उत्तम तिथि होती है मासिक के पश्चात चतुर्थ व सोलहवीं तिथि (Fourth and Sixteenth Day is very Auspicious for Garbh Dharan)। इसके अलावा षष्टी, अष्टमी, नवमी, दशमी, द्वादशी, चतुर्दशी, पूर्णिमा और अमवस्या की रात्रि गर्भधारण के लिए अनुकूल मानी जाती है। गर्भधारण के लिए उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, रोहिणी, मृगशिरा, अनुराधा, हस्त, स्वाती, श्रवण, घनिष्ठा और शतभिषा नक्षत्र बहुत ही शुभ और उत्तम माने गये हैं l ज्योतिषशास्त्र में गर्भ धारण के लिए तिथियों पर भी विचार करने हेतु कहा गया है। इस संस्कार हेतु प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया, पंचमी, सप्तमी, दशमी, द्वादशी, त्रयोदशी तिथि को बहुत ही अच्छा और शुभ कहा गया है l गर्भ धारण के लिए वार की बात करें तो सबसे अच्छा वार है बुध, बृहस्पतिवार और शुक्रवार। इन वारों के अलावा गर्भधारण हेतु सोमवार का भी चयन किया जा सकता है, सोमवार को इस कार्य हेतु मध्यम माना गया है। ज्योतिष सिद्धान्त के अनुसार गर्भ धारण के समय लग्न शुभ होकर बलवान होना चाहिए तथा केन्द्र (1, 4 ,7, 10) एवं त्रिकोण (5,9) में शुभ ग्रह व 3, 6, 11 भावों में पाप ग्रह हो तो उत्तम रहता है। जब लग्न को सूर्य, मंगल और बृहस्पति देखता है और चन्द्रमा विषम नवमांश में होता है तो इसे श्रेष्ठ स्थिति माना जाता है। ज्योतिषशास्त्र कहता है कि गर्भधारण उन स्थितियों में नहीं करना चाहिए जबकि जन्म के समय चन्द्रमा जिस भाव में था उस भाव से चतुर्थ, अष्टम भाव में चन्द्रमा स्थित हो। इसके अलावा तृतीय, पंचम या सप्तम तारा दोष बन रहा हो और भद्रा दोष लग रहा हो। ज्योतिषशास्त्र के इन सिद्धान्तों का पालन किया जाता तो कुल की मर्यादा और गौरव को बढ़ाने वाली संतान घर में जन्म लेगा .
2. पुंसवन संस्कार - - पुंसवन संस्कार के दो प्रमुख लाभ- पुत्र प्राप्ति और स्वस्थ, सुंदर गुणवान संतान है।पुंसवन संस्कार गर्भस्थ बालक के लिए किया जाता है, इस संस्कार में गर्भ की स्थिरता के लिए यज्ञ किया जाता है l
3. सीमन्तोन्नयन संस्कार- यह संस्कार गर्भ के चौथे, छठवें और आठवें महीने में किया जाता है। इस समय गर्भ में पल रहा बच्च सीखने के काबिल हो जाता है। उसमें अच्छे गुण, स्वभाव और कर्म आएं, इसके लिए मां उसी प्रकार आचार-विचार, रहन-सहन और व्यवहार करती है। भक्त प्रह्लाद और अभिमन्यु इसके उदाहरण हैं। इस संस्कार के अंतर्गत यज्ञ में खिचडी की आहुति भी दी जाती है l
4. जातकर्म संस्कार- बालक का जन्म होते ही इस संस्कार को करने से गर्भस्त्रावजन्य दोष दूर होते हैं। नालछेदन के पूर्व अनामिका अंगूली (तीसरे नंबर की) से शहद, घी और स्वर्ण चटाया जाता है। जब नवजात शिशु जन्म लेता है तब 1% घी, 4% शहद से शिशु की जीभ पर ॐ लिखते हैं ..
5. नामकरण संस्कार- जन्म के बाद 11वें या सौवें या 101 वें दिन नामकरण संस्कार किया जाता है। सपरिवार और गुरुजनों के साथ मिल कर यज्ञ किया जाता है तथा ब्राह्मण द्वारा ज्योतिष आधार पर बच्चे का नाम तय किया जाता है। बच्चे को शहद चटाकर सूर्य के दर्शन कराए जाते हैं। उसके नए नाम से सभी लोग उसके स्वास्थ्य व सुख-समृद्धि की कामना करते हैं। वेद मन्त्रों में जो भगवान् के नाम दिए गए हैं, जैसे नारायण, ब्रह्मा, शिव - शंकर, इंद्र, राम - कृष्ण, लक्ष्मी, देव - देवी आदि ऐसे समस्त पवित्र नाम रखे जाते हैं जिससे बच्चे में इन नामों के गुण आयें तथा बड़े होकर उनको लगे की मुझे मेरे नाम जैसा बनना है l
6. निष्क्रमण संस्कार- जन्म के चौथे महीने में यह संस्कार किया जाता है। हमारा शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश जिन्हें पंचभूत कहा जाता है, से बना है। इसलिए पिता इन देवताओं से बच्चे के कल्याण की प्रार्थना करते हैं। निष्क्रमण का अर्थ है बाहर निकालना ... बच्चे को पहली बार घर से बाहर खुली और शुद्ध हवा में लाया जाता है
7. अन्नप्राशन संस्कार- गर्भ में रहते हुए बच्चे के पेट में गंदगी चली जाती है, उसके अन्नप्राशन संस्कार बच्चे को शुद्ध भोजन कराने का प्रसंग होता है। बच्चे को सोने-चांदी के चम्मच से खीर चटाई जाती है। यह संस्कार बच्चे के दांत निकलने के समय अर्थात ६-७ महीने की उम्र में किया जाता है। इस संस्कार के बाद बच्चे को अन्न खिलाने की शुरुआत हो जाती है, इससे पहले बच्चा अन्न को पचाने की अवस्था में नहीं रहता l
8. चूडाकर्म या मुंडन संस्कार- बच्चे की उम्र के पहले वर्ष के अंत में या तीसरे, पांचवें या सातवें वर्ष के पूर्ण होने पर बच्चे के बाल उतारे जाते हैं और यज्ञ किया जाता है जिसे वपन क्रिया संस्कार, मुंडन संस्कार या चूड़ाकर्म संस्कार कहा जाता है। इससे बच्चे का सिर मजबूत होता है तथा बुद्धि तेज होती है।
9. कर्णभेद या कर्णवेध संस्कार- कर्णवेध संस्कार इसका अर्थ है- कान छेदना। परंपरा में कान और नाक छेदे जाते थे। यह संस्कार जन्म के छह माह बाद से लेकर पांच वर्ष की आयु के बीच किया जाता था। यह परंपरा आज भी कायम है। इसके दो कारण हैं, एक- आभूषण पहनने के लिए। दूसरा- कान छेदने से एक्यूपंक्चर होता है। इससे मस्तिष्क तक जाने वाली नसों में रक्त का प्रवाह ठीक होता है। वर्तमान समय में वैज्ञानिकों ने भी कर्णभेद संस्कार का पूर्णतया समर्थन किया है और यह प्रमाणित भी किया है की इस संस्कार से कान की बिमारियों से भी बचाव होता है l सभी संस्कारों की भाँती कर्णभेद संस्कार को भी वेद मन्त्रों के अनुसार जाप करते हुए यज्ञ किया जाता है l
10. उपनयन संस्कार - उप यानी पास और नयन यानी ले जाना। गुरु के पास ले जाने का अर्थ है उपनयन संस्कार। उपनयन संस्कार बच्चे के 6 - 8 वर्ष की आयु में किया जाता है, इसमें यज्ञ करके बच्चे को एक पवित्र धागा पहनाया जाता है, इसे यज्ञोपवीत या जनेऊ भी कहते हैं l बालक को जनेऊ पहनाकर गुरु के पास शिक्षा अध्ययन के लिए ले जाया जाता था। आज भी यह परंपरा है। जनेऊ में तीन सूत्र होते हैं। ये तीन देवता- ब्रह्मा, विष्णु, महेश के प्रतीक हैं। फिर हर सूत्र के तीन-तीन सूत्र होते हैं। ये सब भी देवताओं के प्रतीक हैं। आशय यह कि शिक्षा प्रारंभ करने के पहले देवताओं को मनाया जाए। जब देवता साथ होंगे तो अच्छी शिक्षा आएगी ही। अब बच्चा द्विज कहलाता है, द्विज का अर्थ होता है जिसका दूसरा जन्म हुआ हो, अब बच्चे को पढाई करने के लिए गुरुकुल भेजा जाता है l पहला जन्म तो हमारे माता पिता ने दिया लेकिन दूसरा जन्म हमारे आचार्य, ऋषि, गुरुजन देते हैं, उनके ज्ञान को पाकर हम एक नए मनुष्य बनते हैं इसलिए इसे द्विज या दूसरा जन्म लेना कहते हैं l यज्ञोपवीत पहनना गुरुकुल जाने, ज्ञानी होने, संस्कारी होने का प्रतीक है l कुछ लोगों को ग़लतफहमी है की यज्ञोपवीत का धागा केवल ब्राह्मण लोग ही धारण अक्र्ते हैं, वास्तब में आज कल केवल ब्राह्मण ही रह गए हैं जो सनातन परम्पराओं को पूर्णतया निभा रहे हैं, जबकि पुराने समय में सभी लोग गुरुकुल में प्रवेश के समय ये यज्ञोपवीत पवित्र धागा पहनते थे..... यानी की जनेऊ धारण करते थे l
11. वेदाररंभ या विद्यारंभ संस्कार -- जीवन को सकारात्मक बनाने के लिए शिक्षा जरूरी है। शिक्षा का शुरू होना ही विद्यारंभ संस्कार है। गुरु के आश्रम में भेजने के पहले अभिभावक अपने पुत्र को अनुशासन के साथ आश्रम में रहने की सीख देते हुए भेजते थे। ये संस्कार भी उपनयन संस्कार जैसा ही है, इस संस्कार के बाद बच्चों को वेदों की शिक्षा मिलना आरम्भ किया जाता है गुरुकुल में वर्तमान समय में हम जैसा अधिकाँश लोगों ने गुरुकुल में शिक्षा नहीं पायी है इसलिए हमे अपने ही धर्म के बारे में बहुत बड़ी ग़लतफ़हमियाँ हैं, और ना ही वर्तमान समय में हमारे माता-पिता को अपनी संस्कृति के बारे में पूर्ण ज्ञान है की वो हमको हमारे धर्म के बारे में बता सकें, इसलिए हमारे प्रश्न मन में ही रह जाते हैं l अधिकाँश अभिभावक तो बस कभी कभी मन्दिर जाने को ही "धर्म" कह देते हैं. ये हमारा 11वां संस्कार है, अब जब गुरुकुल में बच्चे पढने जा रहे हैं और वो वहां पर वेदों को पढ़ना आरम्भ करेंगे तो बहुत ही आश्चर्य की बात है की हम वेदों को सनातन धर्म के धार्मिक ग्रन्थ मानते हैं और गुरुकुल में बच्चों को यदि धार्मिक ग्रन्थ की शिक्षा दी जाएगी तो वो इंजीनियर, डाक्टर, वैज्ञानिक, अध्यापक, सैनिक आदि कैसे बनेंगे ? वास्तव में हम लोगों को यह नहीं पता की जैसे अंग्रेजी डाक्टर होते हैं वैसे ही हमारे भारत वर्ष में भी वैद्य हैं l जैसे आजकल के डाक्टर रसायनों के अनुसार दवाइयां देते हैं खाने के लिए उसी प्रकार हमारे आचार्य और वैद्य शिरोमणी जड़ी बूटियों की औषधियां बनाते थे, जो की विश्व की सबसे प्राचीन चिकित्सा पद्धति है..... आयुर्वेद हमारे वेदों का ही एक अंश है l ऐसे ही वेद के अनेक अंश हैं जैसे ... "शस्त्र-शास्त्र" ...जो भारत की युद्ध कलाओं पर आधारित हैं l गन्धर्व-वेद ... संगीत पर आधारित है l ये सब उपवेद कहलाते हैं l हम सबको थोड़े अपने सामान्य ज्ञान या व्यवहारिक ज्ञान के अनुसार भी सोचना चाहिए की भारत में पुरानी संस्कृति जो भी थीं.... क्या वो बिना किसी समाज, चिकित्सक, इंजिनियर, वैज्ञानिक, अध्यापक, सैनिक आदि के बिना रह सकती थी क्या ...? बिलुल भी नहीं .... वेदों में समाज के प्रत्येक भाग के लिए ज्ञान दिया गया है l केशांत संस्कार- केशांत संस्कार का अर्थ है केश यानी बालों का अंत करना, उन्हें समाप्त करना। विद्या अध्ययन से पूर्व भी केशांत किया जाता है। मान्यता है गर्भ से बाहर आने के बाद बालक के सिर पर माता-पिता के दिए बाल ही रहते हैं। इन्हें काटने से शुद्धि होती है।
शिक्षा प्राप्ति के पहले शुद्धि जरूरी है, ताकि मस्तिष्क ठीक दिशा में काम करे।
12. समवर्तन संस्कार - समवर्तन का अर्थ है फिर से लौटना। आश्रम में शिक्षा प्राप्ति के बाद ब्रह्मचारी को फिर दीन-दुनिया में लाने के लिए यह संस्कार किया जाता था। इसका आशय है ब्रह्मचारी को मनोवैज्ञानिक रूप से जीवन के संघर्षो के लिए तैयार करना। जब बच्चा (लडका या लड़की ) गुरुकुल में अपनी शिक्षा पूरी कर लेते हैं, अर्थान उनको वेदों के अनुसार विज्ञान, संगीत, तकनीक, युद्धशैली, अनुसन्धान, चिकित्सा और औषधी, अस्त्रों शस्त्रों के निर्माण, अध्यात्म, धर्म, राजनीति, समाज आदि की उचित और सर्वोत्तम शिक्षा मिल जाती है उसके बाद यह संस्कार किया जाता है l समवर्तन संस्कार में ऋषि, आचार्य, गुरुजन आदि शिक्षा पूर्ण होने के पच्चात अपने शिष्यों से गुरु दक्षिणा भी मांगते हैं l वर्तमान समय में इस संस्कार का एक विदूषित रूप देखने को मिलता है जिसे Convocation Ceremony कहा जाता है l
13. विवाह संस्कार- विवास का अर्थ है पुरुष द्वारा स्त्री को विशेष रूप से अपने घर ले जाना। सनातन धर्म में विवाह को समझौता नहीं संस्कार कहा गया है। यह धर्म का साधन है। दोनों साथ रहकर धर्म के पालन के संकल्प के साथ विवाह करते हैं। विवाह के द्वारा सृष्टि के विकास में योगदान दिया जाता है। इसी से व्यक्ति पितृऋण से मुक्त होता है। ये संस्कार बहुत ही महत्वपूर्ण संस्कार है, ये भी यज्ञ करते हुए और वेदों पर आधारित मन्त्रों को पढ़ते हुए किया जाता है, वेद-मन्त्रों में पति और पत्नी के लिए कर्तव्य दिए गए हैं और इन को ध्यान में रखते हुए अग्नि के 7 फेरे लिए जाते हैं l जैसे हमारे माता पिता ने हमको जन्म दिया वैसे ही हमारा कर्तव्य है की हम कुल परम्परा को आगे बाधाएं, अपने बच्चों को सनातन संस्कार दें और धर्म की सेवा करें l विवाह संस्कार बहुत आवश्यक है ... हमारे समस्त ऋषियों की पत्नी हुआ करती थीं, ये महान स्त्रियाँ आध्यात्मिकता में ऋषियों के बराबर थीं l
14. वानप्रस्थ संस्कार - अब 50 वर्ष की आयु में मनुष्य को अपने परिवार की सभी जिम्मेदारियों से मुक्त होकर जंगल में चले जाना चाहिए और वहां पर वेदों की 6 दर्शन यानी की षट-दर्शन में से किसी 1 के द्वारा मुक्ति प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए, ये संस्कार भी यज्ञ करते हुए किया जाता है और संकल्प किया जाता है की अब मैं इश्वर के ज्ञान को प्राप्त करने का प्रयास करेंगे l
15. सन्यास संस्कार- वानप्रस्थ संस्कार में जब मनुष्य ज्ञान प्राप्त कर लेता है उसके बाद वो सन्यास लेता है, वास्तव में सन्यास पूरे समाज के लिए लिया जाता है , प्रत्येक सन्यासी का धर्म है की वो सारे संसार के लोगों को भगवान् के पुत्र पुत्री समझे और अपना बचा हुआ समय सबके कल्याण के लिए दे दे l सन्यासी को कभी 1 स्थान पर नही रहना चाहिए उसे घूम घूम कर साधना करते हुए लोगो के काम आना चाहिए, अब सारा विश्व ही सन्यासी का परिवार है, कोई पराया नही है l सन्यास संस्कार 75 की वर्ष की आयु में होता है पर अगर इस संसार से वैफाग्य हो जाए तो किसी भी आयु में सन्यास लिया जा सकता है l सन्यासी का धर्म है की वो धर्म के ज्ञान को लोगों को बांटे, ये उसकी सेवा है, सन्यास संस्कार करते समय भी यज्ञ किया जाता है वेद मन्त्र पढ़ते हुए और सृष्टि के कल्याण हेतु बाकी जीवन व्यतीत करने की प्रतिज्ञा की जाती है l
16. अंत्येष्टि संस्कार- इसका अर्थ है अंतिम यज्ञ। आज भी शवयात्रा के आगे घर से अग्नि जलाकर ले जाई जाती है। इसी से चिता जलाई जाती है। आशय है विवाह के बाद व्यक्ति ने जो अग्नि घर में जलाई थी उसी से उसके अंतिम यज्ञ की अग्नि जलाई जाती है। मृत्यु के साथ ही व्यक्ति स्वयं इस अंतिम यज्ञ में होम हो जाता है। हमारे यहां अंत्येष्टि को इसलिए संस्कार कहा गया है कि इसके माध्यम से मृत शरीर नष्ट होता है। इससे पर्यावरण की रक्षा होती है। अन्त्येष्टी संस्कार के समय भी वेद मन्त्र पढ़े जाते हैं, पुराने समय में "नरमेध यज्ञ" जिसका वास्तविक अर्थ अन्त्येष्टी संस्कार था.. उसका गलत अर्थ निकाल कर बलि मान लिया गया था l
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1.गर्भाधान संस्कार - ये सबसे पहला संस्कार है l बच्चे के जन्म से पहले माता -पिता अपने परिवार के साथ गुरुजनों के साथ यज्ञ करते हैं और इश्वर को प्रार्थना करते हैं की उनके घर अच्छे बचे का जन्म हो, पवित्र आत्मा, पुण्यात्मा आये l जीवन की शुरूआत गर्भ से होती है। क्योंकि यहां एक जिन्दग़ी जन्म लेती है। हम सभी चाहते हैं कि हमारे बच्चे, हमारी आने वाली पीढ़ी अच्छी हो उनमें अच्छे गुण हो और उनका जीवन खुशहाल रहे इसके लिए हम अपनी तरफ से पूरी पूरी कोशिश करते हैं। ज्योतिषशास्त्री कहते हैं कि अगर अंकुर शुभ मुहुर्त में हो तो उसका परिणाम भी उत्तम होता है। माता पिता को ध्यान देना चाहिए कि गर्भ धारण शुभ मुहुर्त में हो। ज्योतिषशास्त्री बताते हैं कि गर्भधारण के लिए उत्तम तिथि होती है मासिक के पश्चात चतुर्थ व सोलहवीं तिथि (Fourth and Sixteenth Day is very Auspicious for Garbh Dharan)। इसके अलावा षष्टी, अष्टमी, नवमी, दशमी, द्वादशी, चतुर्दशी, पूर्णिमा और अमवस्या की रात्रि गर्भधारण के लिए अनुकूल मानी जाती है। गर्भधारण के लिए उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, रोहिणी, मृगशिरा, अनुराधा, हस्त, स्वाती, श्रवण, घनिष्ठा और शतभिषा नक्षत्र बहुत ही शुभ और उत्तम माने गये हैं l ज्योतिषशास्त्र में गर्भ धारण के लिए तिथियों पर भी विचार करने हेतु कहा गया है। इस संस्कार हेतु प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया, पंचमी, सप्तमी, दशमी, द्वादशी, त्रयोदशी तिथि को बहुत ही अच्छा और शुभ कहा गया है l गर्भ धारण के लिए वार की बात करें तो सबसे अच्छा वार है बुध, बृहस्पतिवार और शुक्रवार। इन वारों के अलावा गर्भधारण हेतु सोमवार का भी चयन किया जा सकता है, सोमवार को इस कार्य हेतु मध्यम माना गया है। ज्योतिष सिद्धान्त के अनुसार गर्भ धारण के समय लग्न शुभ होकर बलवान होना चाहिए तथा केन्द्र (1, 4 ,7, 10) एवं त्रिकोण (5,9) में शुभ ग्रह व 3, 6, 11 भावों में पाप ग्रह हो तो उत्तम रहता है। जब लग्न को सूर्य, मंगल और बृहस्पति देखता है और चन्द्रमा विषम नवमांश में होता है तो इसे श्रेष्ठ स्थिति माना जाता है। ज्योतिषशास्त्र कहता है कि गर्भधारण उन स्थितियों में नहीं करना चाहिए जबकि जन्म के समय चन्द्रमा जिस भाव में था उस भाव से चतुर्थ, अष्टम भाव में चन्द्रमा स्थित हो। इसके अलावा तृतीय, पंचम या सप्तम तारा दोष बन रहा हो और भद्रा दोष लग रहा हो। ज्योतिषशास्त्र के इन सिद्धान्तों का पालन किया जाता तो कुल की मर्यादा और गौरव को बढ़ाने वाली संतान घर में जन्म लेगा .
2. पुंसवन संस्कार - - पुंसवन संस्कार के दो प्रमुख लाभ- पुत्र प्राप्ति और स्वस्थ, सुंदर गुणवान संतान है।पुंसवन संस्कार गर्भस्थ बालक के लिए किया जाता है, इस संस्कार में गर्भ की स्थिरता के लिए यज्ञ किया जाता है l
3. सीमन्तोन्नयन संस्कार- यह संस्कार गर्भ के चौथे, छठवें और आठवें महीने में किया जाता है। इस समय गर्भ में पल रहा बच्च सीखने के काबिल हो जाता है। उसमें अच्छे गुण, स्वभाव और कर्म आएं, इसके लिए मां उसी प्रकार आचार-विचार, रहन-सहन और व्यवहार करती है। भक्त प्रह्लाद और अभिमन्यु इसके उदाहरण हैं। इस संस्कार के अंतर्गत यज्ञ में खिचडी की आहुति भी दी जाती है l
4. जातकर्म संस्कार- बालक का जन्म होते ही इस संस्कार को करने से गर्भस्त्रावजन्य दोष दूर होते हैं। नालछेदन के पूर्व अनामिका अंगूली (तीसरे नंबर की) से शहद, घी और स्वर्ण चटाया जाता है। जब नवजात शिशु जन्म लेता है तब 1% घी, 4% शहद से शिशु की जीभ पर ॐ लिखते हैं ..
5. नामकरण संस्कार- जन्म के बाद 11वें या सौवें या 101 वें दिन नामकरण संस्कार किया जाता है। सपरिवार और गुरुजनों के साथ मिल कर यज्ञ किया जाता है तथा ब्राह्मण द्वारा ज्योतिष आधार पर बच्चे का नाम तय किया जाता है। बच्चे को शहद चटाकर सूर्य के दर्शन कराए जाते हैं। उसके नए नाम से सभी लोग उसके स्वास्थ्य व सुख-समृद्धि की कामना करते हैं। वेद मन्त्रों में जो भगवान् के नाम दिए गए हैं, जैसे नारायण, ब्रह्मा, शिव - शंकर, इंद्र, राम - कृष्ण, लक्ष्मी, देव - देवी आदि ऐसे समस्त पवित्र नाम रखे जाते हैं जिससे बच्चे में इन नामों के गुण आयें तथा बड़े होकर उनको लगे की मुझे मेरे नाम जैसा बनना है l
6. निष्क्रमण संस्कार- जन्म के चौथे महीने में यह संस्कार किया जाता है। हमारा शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश जिन्हें पंचभूत कहा जाता है, से बना है। इसलिए पिता इन देवताओं से बच्चे के कल्याण की प्रार्थना करते हैं। निष्क्रमण का अर्थ है बाहर निकालना ... बच्चे को पहली बार घर से बाहर खुली और शुद्ध हवा में लाया जाता है
7. अन्नप्राशन संस्कार- गर्भ में रहते हुए बच्चे के पेट में गंदगी चली जाती है, उसके अन्नप्राशन संस्कार बच्चे को शुद्ध भोजन कराने का प्रसंग होता है। बच्चे को सोने-चांदी के चम्मच से खीर चटाई जाती है। यह संस्कार बच्चे के दांत निकलने के समय अर्थात ६-७ महीने की उम्र में किया जाता है। इस संस्कार के बाद बच्चे को अन्न खिलाने की शुरुआत हो जाती है, इससे पहले बच्चा अन्न को पचाने की अवस्था में नहीं रहता l
8. चूडाकर्म या मुंडन संस्कार- बच्चे की उम्र के पहले वर्ष के अंत में या तीसरे, पांचवें या सातवें वर्ष के पूर्ण होने पर बच्चे के बाल उतारे जाते हैं और यज्ञ किया जाता है जिसे वपन क्रिया संस्कार, मुंडन संस्कार या चूड़ाकर्म संस्कार कहा जाता है। इससे बच्चे का सिर मजबूत होता है तथा बुद्धि तेज होती है।
9. कर्णभेद या कर्णवेध संस्कार- कर्णवेध संस्कार इसका अर्थ है- कान छेदना। परंपरा में कान और नाक छेदे जाते थे। यह संस्कार जन्म के छह माह बाद से लेकर पांच वर्ष की आयु के बीच किया जाता था। यह परंपरा आज भी कायम है। इसके दो कारण हैं, एक- आभूषण पहनने के लिए। दूसरा- कान छेदने से एक्यूपंक्चर होता है। इससे मस्तिष्क तक जाने वाली नसों में रक्त का प्रवाह ठीक होता है। वर्तमान समय में वैज्ञानिकों ने भी कर्णभेद संस्कार का पूर्णतया समर्थन किया है और यह प्रमाणित भी किया है की इस संस्कार से कान की बिमारियों से भी बचाव होता है l सभी संस्कारों की भाँती कर्णभेद संस्कार को भी वेद मन्त्रों के अनुसार जाप करते हुए यज्ञ किया जाता है l
10. उपनयन संस्कार - उप यानी पास और नयन यानी ले जाना। गुरु के पास ले जाने का अर्थ है उपनयन संस्कार। उपनयन संस्कार बच्चे के 6 - 8 वर्ष की आयु में किया जाता है, इसमें यज्ञ करके बच्चे को एक पवित्र धागा पहनाया जाता है, इसे यज्ञोपवीत या जनेऊ भी कहते हैं l बालक को जनेऊ पहनाकर गुरु के पास शिक्षा अध्ययन के लिए ले जाया जाता था। आज भी यह परंपरा है। जनेऊ में तीन सूत्र होते हैं। ये तीन देवता- ब्रह्मा, विष्णु, महेश के प्रतीक हैं। फिर हर सूत्र के तीन-तीन सूत्र होते हैं। ये सब भी देवताओं के प्रतीक हैं। आशय यह कि शिक्षा प्रारंभ करने के पहले देवताओं को मनाया जाए। जब देवता साथ होंगे तो अच्छी शिक्षा आएगी ही। अब बच्चा द्विज कहलाता है, द्विज का अर्थ होता है जिसका दूसरा जन्म हुआ हो, अब बच्चे को पढाई करने के लिए गुरुकुल भेजा जाता है l पहला जन्म तो हमारे माता पिता ने दिया लेकिन दूसरा जन्म हमारे आचार्य, ऋषि, गुरुजन देते हैं, उनके ज्ञान को पाकर हम एक नए मनुष्य बनते हैं इसलिए इसे द्विज या दूसरा जन्म लेना कहते हैं l यज्ञोपवीत पहनना गुरुकुल जाने, ज्ञानी होने, संस्कारी होने का प्रतीक है l कुछ लोगों को ग़लतफहमी है की यज्ञोपवीत का धागा केवल ब्राह्मण लोग ही धारण अक्र्ते हैं, वास्तब में आज कल केवल ब्राह्मण ही रह गए हैं जो सनातन परम्पराओं को पूर्णतया निभा रहे हैं, जबकि पुराने समय में सभी लोग गुरुकुल में प्रवेश के समय ये यज्ञोपवीत पवित्र धागा पहनते थे..... यानी की जनेऊ धारण करते थे l
11. वेदाररंभ या विद्यारंभ संस्कार -- जीवन को सकारात्मक बनाने के लिए शिक्षा जरूरी है। शिक्षा का शुरू होना ही विद्यारंभ संस्कार है। गुरु के आश्रम में भेजने के पहले अभिभावक अपने पुत्र को अनुशासन के साथ आश्रम में रहने की सीख देते हुए भेजते थे। ये संस्कार भी उपनयन संस्कार जैसा ही है, इस संस्कार के बाद बच्चों को वेदों की शिक्षा मिलना आरम्भ किया जाता है गुरुकुल में वर्तमान समय में हम जैसा अधिकाँश लोगों ने गुरुकुल में शिक्षा नहीं पायी है इसलिए हमे अपने ही धर्म के बारे में बहुत बड़ी ग़लतफ़हमियाँ हैं, और ना ही वर्तमान समय में हमारे माता-पिता को अपनी संस्कृति के बारे में पूर्ण ज्ञान है की वो हमको हमारे धर्म के बारे में बता सकें, इसलिए हमारे प्रश्न मन में ही रह जाते हैं l अधिकाँश अभिभावक तो बस कभी कभी मन्दिर जाने को ही "धर्म" कह देते हैं. ये हमारा 11वां संस्कार है, अब जब गुरुकुल में बच्चे पढने जा रहे हैं और वो वहां पर वेदों को पढ़ना आरम्भ करेंगे तो बहुत ही आश्चर्य की बात है की हम वेदों को सनातन धर्म के धार्मिक ग्रन्थ मानते हैं और गुरुकुल में बच्चों को यदि धार्मिक ग्रन्थ की शिक्षा दी जाएगी तो वो इंजीनियर, डाक्टर, वैज्ञानिक, अध्यापक, सैनिक आदि कैसे बनेंगे ? वास्तव में हम लोगों को यह नहीं पता की जैसे अंग्रेजी डाक्टर होते हैं वैसे ही हमारे भारत वर्ष में भी वैद्य हैं l जैसे आजकल के डाक्टर रसायनों के अनुसार दवाइयां देते हैं खाने के लिए उसी प्रकार हमारे आचार्य और वैद्य शिरोमणी जड़ी बूटियों की औषधियां बनाते थे, जो की विश्व की सबसे प्राचीन चिकित्सा पद्धति है..... आयुर्वेद हमारे वेदों का ही एक अंश है l ऐसे ही वेद के अनेक अंश हैं जैसे ... "शस्त्र-शास्त्र" ...जो भारत की युद्ध कलाओं पर आधारित हैं l गन्धर्व-वेद ... संगीत पर आधारित है l ये सब उपवेद कहलाते हैं l हम सबको थोड़े अपने सामान्य ज्ञान या व्यवहारिक ज्ञान के अनुसार भी सोचना चाहिए की भारत में पुरानी संस्कृति जो भी थीं.... क्या वो बिना किसी समाज, चिकित्सक, इंजिनियर, वैज्ञानिक, अध्यापक, सैनिक आदि के बिना रह सकती थी क्या ...? बिलुल भी नहीं .... वेदों में समाज के प्रत्येक भाग के लिए ज्ञान दिया गया है l केशांत संस्कार- केशांत संस्कार का अर्थ है केश यानी बालों का अंत करना, उन्हें समाप्त करना। विद्या अध्ययन से पूर्व भी केशांत किया जाता है। मान्यता है गर्भ से बाहर आने के बाद बालक के सिर पर माता-पिता के दिए बाल ही रहते हैं। इन्हें काटने से शुद्धि होती है।
शिक्षा प्राप्ति के पहले शुद्धि जरूरी है, ताकि मस्तिष्क ठीक दिशा में काम करे।
12. समवर्तन संस्कार - समवर्तन का अर्थ है फिर से लौटना। आश्रम में शिक्षा प्राप्ति के बाद ब्रह्मचारी को फिर दीन-दुनिया में लाने के लिए यह संस्कार किया जाता था। इसका आशय है ब्रह्मचारी को मनोवैज्ञानिक रूप से जीवन के संघर्षो के लिए तैयार करना। जब बच्चा (लडका या लड़की ) गुरुकुल में अपनी शिक्षा पूरी कर लेते हैं, अर्थान उनको वेदों के अनुसार विज्ञान, संगीत, तकनीक, युद्धशैली, अनुसन्धान, चिकित्सा और औषधी, अस्त्रों शस्त्रों के निर्माण, अध्यात्म, धर्म, राजनीति, समाज आदि की उचित और सर्वोत्तम शिक्षा मिल जाती है उसके बाद यह संस्कार किया जाता है l समवर्तन संस्कार में ऋषि, आचार्य, गुरुजन आदि शिक्षा पूर्ण होने के पच्चात अपने शिष्यों से गुरु दक्षिणा भी मांगते हैं l वर्तमान समय में इस संस्कार का एक विदूषित रूप देखने को मिलता है जिसे Convocation Ceremony कहा जाता है l
13. विवाह संस्कार- विवास का अर्थ है पुरुष द्वारा स्त्री को विशेष रूप से अपने घर ले जाना। सनातन धर्म में विवाह को समझौता नहीं संस्कार कहा गया है। यह धर्म का साधन है। दोनों साथ रहकर धर्म के पालन के संकल्प के साथ विवाह करते हैं। विवाह के द्वारा सृष्टि के विकास में योगदान दिया जाता है। इसी से व्यक्ति पितृऋण से मुक्त होता है। ये संस्कार बहुत ही महत्वपूर्ण संस्कार है, ये भी यज्ञ करते हुए और वेदों पर आधारित मन्त्रों को पढ़ते हुए किया जाता है, वेद-मन्त्रों में पति और पत्नी के लिए कर्तव्य दिए गए हैं और इन को ध्यान में रखते हुए अग्नि के 7 फेरे लिए जाते हैं l जैसे हमारे माता पिता ने हमको जन्म दिया वैसे ही हमारा कर्तव्य है की हम कुल परम्परा को आगे बाधाएं, अपने बच्चों को सनातन संस्कार दें और धर्म की सेवा करें l विवाह संस्कार बहुत आवश्यक है ... हमारे समस्त ऋषियों की पत्नी हुआ करती थीं, ये महान स्त्रियाँ आध्यात्मिकता में ऋषियों के बराबर थीं l
14. वानप्रस्थ संस्कार - अब 50 वर्ष की आयु में मनुष्य को अपने परिवार की सभी जिम्मेदारियों से मुक्त होकर जंगल में चले जाना चाहिए और वहां पर वेदों की 6 दर्शन यानी की षट-दर्शन में से किसी 1 के द्वारा मुक्ति प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए, ये संस्कार भी यज्ञ करते हुए किया जाता है और संकल्प किया जाता है की अब मैं इश्वर के ज्ञान को प्राप्त करने का प्रयास करेंगे l
15. सन्यास संस्कार- वानप्रस्थ संस्कार में जब मनुष्य ज्ञान प्राप्त कर लेता है उसके बाद वो सन्यास लेता है, वास्तव में सन्यास पूरे समाज के लिए लिया जाता है , प्रत्येक सन्यासी का धर्म है की वो सारे संसार के लोगों को भगवान् के पुत्र पुत्री समझे और अपना बचा हुआ समय सबके कल्याण के लिए दे दे l सन्यासी को कभी 1 स्थान पर नही रहना चाहिए उसे घूम घूम कर साधना करते हुए लोगो के काम आना चाहिए, अब सारा विश्व ही सन्यासी का परिवार है, कोई पराया नही है l सन्यास संस्कार 75 की वर्ष की आयु में होता है पर अगर इस संसार से वैफाग्य हो जाए तो किसी भी आयु में सन्यास लिया जा सकता है l सन्यासी का धर्म है की वो धर्म के ज्ञान को लोगों को बांटे, ये उसकी सेवा है, सन्यास संस्कार करते समय भी यज्ञ किया जाता है वेद मन्त्र पढ़ते हुए और सृष्टि के कल्याण हेतु बाकी जीवन व्यतीत करने की प्रतिज्ञा की जाती है l
16. अंत्येष्टि संस्कार- इसका अर्थ है अंतिम यज्ञ। आज भी शवयात्रा के आगे घर से अग्नि जलाकर ले जाई जाती है। इसी से चिता जलाई जाती है। आशय है विवाह के बाद व्यक्ति ने जो अग्नि घर में जलाई थी उसी से उसके अंतिम यज्ञ की अग्नि जलाई जाती है। मृत्यु के साथ ही व्यक्ति स्वयं इस अंतिम यज्ञ में होम हो जाता है। हमारे यहां अंत्येष्टि को इसलिए संस्कार कहा गया है कि इसके माध्यम से मृत शरीर नष्ट होता है। इससे पर्यावरण की रक्षा होती है। अन्त्येष्टी संस्कार के समय भी वेद मन्त्र पढ़े जाते हैं, पुराने समय में "नरमेध यज्ञ" जिसका वास्तविक अर्थ अन्त्येष्टी संस्कार था.. उसका गलत अर्थ निकाल कर बलि मान लिया गया था l
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