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Saturday, August 27, 2011

Hindi Poems, हिंदी कविताएँ

Hindi Poems, हिंदी कविताएँ

रात यों कहने लगा  - दिनकर (Raat Yon Kehne Laga - Ramdhari Singh 'Dinkar')

- रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद
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- आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है
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- उलझनें अपनी बनाकर आप ही फंसता
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- और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है
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- जानता है तू के मैं कितना पुराना हूँ
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- मैं देख चूका हूँ मनु को जनमते मरते
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- और लाखों बार तुझ से पागलों को भी
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- चांदनी में बैठे स्वप्नों पर सही करते
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- आदमी का स्वप्न? है वो बुलबुला जल का
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- आज उठता और कल फिर फट जाता
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- किन्तु , फिर भी धन्य ठहरा आदमी ही तो?
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- बुलबुलों से खेलता, कविता बनता है
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- मैं न बोला किन्तु मेरी रागिनी बोली,
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- देख फिर से चाँद!
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- मुझको जानता है तू?
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- स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी?
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- आग को भी क्या नहीं पहचानता तू?
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- मैं न वोह जो स्वप्न पर केवल सही करते
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- आग में उसको गला लोहा बनता है,
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- और उस पर नींव रखता है नै घर की,
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- इस तरह दीवार फौलादी उठाता है .
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- मनु नहीं, मनु पुत्र है यह सामने, जिसकी
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- कल्पना  की जीभ में भी धार होती है
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- बाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
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- स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है.
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- स्वर्ग के सम्राट को जा कर खबर कर दे
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- रोज़ ही आकाश चढ़ता जा रहा है वो,
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- रोकिये जैसे बने इन स्वप्न वालों को,
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- स्वर्ग की ही ओर बढ़ता आ रहा है वो
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- - -दिनकर
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उड़ जाएगा हंस अकेला
जग दरशन का मेला
जैसे पात गिरे तरुवर से
मिलना बहुत दुहेला
जाने किधर गिरेगा
लगया पवन का रेला
जब होवे उमर पूरी
जब छूटेगा हुकम हुजूरी
जम के दूत बड़े मजबूत
जम से पड़ा झमेला
दास कबीर हरि के गुण गावै
वा हरि को पारन पावे
गुर कि करनी गुर जाएगा
चेले कि करनी चेला
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उस मोड़ से शुरू करें, फिर ये ज़िन्दगी
हर शय जहाँ हसीं थी, हम तुम थे अजनबी
लेकर चले थे हम जिन्हें, जन्नत के ख्वाब थे
फूलों के ख्वाब थे वो मोहब्बत के ख्वाब थे
लेकिन कहाँ है उनमें वो पहले सी दिलकशी
रहते थे हम हसीं ख्यालों की भीड़ में
उलझे हुए हैं आज सवालों की भीड़ में
आने लगी है याद वो फुर्सत की हर घडी
शायद ये वक़्त हमसे कोई चाल चल गया
रिश्ता वफ़ा का और ही रंगों में ढल गया
अश्कों की चांदनी से बेहतर थी वो धूप ही
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मौसम आयेंगे जायेंगे
हम तुमको भूल पायेंगे
जाड़ों की बहार जब आएगी
धूप आँगन में लहराएगी
गुल दोपहरी मुस्काएगी
शाम के चराग़ जलायेगी
जब रात बड़ी हो जायेगी
और दिन छोटे हो जायेंगे
हम तुमको भूल पायेंगे
मौसम आयेंगे जायेंगे....
जब गर्मी के दिन आयेंगे
तपती दोपहरें लायेंगे
सन्नाटे शोर मचाएंगे
गलियों में धूल उड़ायेंगे
पत्ते पीले हो जायेंगे
जब फूल सभी मुरझाएंगे
हम तुमको भूल पायेंगे
मौसम आयेंगे जायेंगे...
जब बरखा की रुत आएगी
हरियाली साथ में लाएगी
जब काली बदली छाएगी
कोयल मल्हारें गाएगी
एक याद हमें तडपाएगी
दो नैना नीर बहायेंगे
हम तुमको भूल पायेंगे
मौसम आयेंगे जायेंगे...

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देस से आने वाले बता किस हाल में है याराने वतन वो बागे वतन , फिरदौसे वतन देस से आने वाले बता
क्या अब भी वहां के बागों में मस्ताना हवाएं आती हैं
क्या अब भी वहां के परबत पर
घनघोर घटाएं छाती हैं
क्या अब भी वहां की बरखाएं
वैसे ही दिलों को भाती  हैं
देस से आने वाले बता
वो शहर जो हमसे छूटा है
वो शहर हमारा कैसा है
सब लोग हमें प्यारे हैं मगर
वो जान से प्यारा कैसा है
कैसा है? देस से आने वाले बता
क्या अब भी वतन में
वैसे ही सरमस्त नज़ारे होते हैं
क्या अब भी सुहानी रातों में
वो चाँद सितारे होते हैं
हम खेल जो खेला करते थे
अब भी वो सारे होते हैं
देस से आने वाले बता
शब बज़्म--हरीफां सजती है
या शाम ढले सो जाते हैं
यारों की बसर औकात है क्या
हर अंजुमन--आरा कैसा है
देस से आने वाले बता
क्या अब भी महकते मंदिर से
नाकूस की आवाज़ आती है
क्या अब भी मुक़द्दस मस्जिद पर
मस्ताना अज़ान थर्राती है
क्या अब भी वहां के पनघट पर पनहारियाँ पानी भरती हैं
अंगडाई का नक्शा बन बन कर
सब माथे पे गागर धरतीं हैं
और अपने घरों को जाते हुए हंसती हुई चुहलें करती हैं
देस से आने वाले बता
महरान लहू की धार हुआ
बोलान भी क्या गुलनार हुआ
किस रंग का है दरिया--अटक रावी का किनारा कैसा है
कैसा है? देस से आने वाले मगर
तुमने तो इतना भी पूछा वो कवी जिसे बनवास मिला
वो दर्द का मारा कैसा है
कैसा है? देस से आने वाले बता
क्या अब भी किसी के सीने में
बाकी है हमारी चाह बता
क्या याद हमें भी करता है
अब यारों में कोई आह बता
देस से आने वाले बता
लिल्लाह बता, लिल्लाह बता
-    by Akhtar Sheerani

स्वप्न झरे फूल से -गोपाल दास 'नीरज' (Swapn Jhare Phool Se- Gopal Das 'Neeraj')

 स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से
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- लुट गए सिंगार सभी, बाग़ के बबूल से
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- और हम खड़े खड़े, बहार देखते रहे
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- कारवां गुज़र गया, ग़ुबार देखते रहे
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- नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गयी
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- पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गयी
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- पात पात झर गए कि शाख़ शाख़ जल गयी
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- चाह तो निकल सकी न , पर उमर निकल गयी
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- गीत अश्क हो गए, छंद हो दफ़न गए
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- साथ के सभी दिए, धुआँ पहन पहन गए
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- और हम झुके झुके, मोड़ पर रुके रुके
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- उम्र के चढाव का उतार देखते रहे
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- क्या शबाब था कि फूल फूल प्यार कर उठा
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- क्या श्रृंगार था कि देख आइना सिहर उठा
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- इस तरफ ज़मीन और आसमाँ उधर उठा
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- थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा
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- एक दिन मगर यहाँ, ऐसी कुछ हवा चली
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- लुट गयी कली कली कि घुट गयी गली गली
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- और हम लुटे लुटे, वक़्त से पिटे पिटे
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- सांस की शराब का खुमार देखते रहे
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- हाथ थे मिले कि ज़ुल्फ़ चाँद कि सँवार दूँ
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- होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ
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- दर्द था दिया कि हर दुखी को प्यार दूँ
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- और सांस यूँ कि स्वर्ग भूमि पर उतार दूँ
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- हो सका न कुछ मगर, शाम बन सिहर गयी
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- वह उठी लहर कि ढह गए किले बिखर बिखर
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- और हम डरे डरे, नीर नयन में भरे
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- ओढ़ कर कफ़न पड़े, मज़ार देखते रहे
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- मांग भर चली कि एक, जब नई नई किरन
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- ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमुक उठे चरन चरन
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- शोर मच गया कि लो चली, दुल्हन चली
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- गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन नयन
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- पर तभी ज़हर भरी, गाज वह एक गिरी
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- पुंछ गया सिन्दूर, तार तार हुई चूनरी
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- और हम अज़ान से, दूर के मकान से
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- पालकी लिए हुए, कहार देखते रहे
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- गोपाल दास 'नीरज'

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