बन्दा सिंह बहादुर का बलिदान, ये वीर-गाथा क्यों नही पढ़ाते स्कूल में
बन्दा सिंह बहादुर, बन्दा सिंह बहादुर का बलिदान
बन्दा सिंह बहादुर का जन्म 27 , 1670 को ग्राम तच्छल किला, पु॰छ में श्री रामदेव के घर में हुआ। उनका बचपन का नाम लक्ष्मणदास था। युवावस्था में शिकार खेलते समय उन्होंने एक गर्भवती हिरणी पर तीर चला दिया। इससे उसके पेट से एक शिशु निकला और तड़पकर वहीं मर गया। यह देखकर उनका मन खिन्न हो गया। उन्होंने अपना नाम माधोदास रख लिया और घर छोड़कर तीर्थयात्रा पर चल दिये। अनेक साधुओं से योग साधना सीखी और फिर नान्देड़ में कुटिया बनाकर रहने लगे।
माधोदास ने श्री गुरु गोविन्द सिंह जी पर अपना जादू किया पर श्री गुरु गोविन्दसिंह जी पर इसका कोई असर न हुआ तब माधोदास ने श्री गुरु गोविन्दसिंह जी की महिमा को जान लिया और नतमस्तक हो गया और विनती की कि मैं आपका बंदा बन चुका हूँ। आपकी प्रत्येक आज्ञा मेरे लिए अनुकरणीय है। फिर उसने कहा – मैं भटक गया था। अब मैं जान गया हूँ, मुझे जीवन चरित्रा से सन्त और कर्त्तव्य से सिपाही होना चाहिए। आपने मेरा मार्गदर्शन करके मुझे कृत्तार्थ किया है जिससे मैं अपना भविष्य उज्ज्वल करता हुआ अपनी प्रतिभा का परिचय दे पाउँगा।
श्री गुरु गोविन्द सिंह जी , माधे दास के जीवन में क्रान्ति देखकर प्रसन्न हुए और उन्होंने उसे गुरूदीक्षा देकर अमृतपान कराया। जिससे माधेदास केशधरी सिंह बन गया। पाँच प्यारों ने माधेदास का नाम परिवर्तित करके गुरूबख्श सिंह रख दिया। परन्तु वह अपने आप को गुरू गोबिन्द सिंह जी का बन्दा ही कहलाता रहा। इसी लिए इतिहास में वह बंदा बहादुर के नाम से प्रसिध हुआ।
श्री गुरु गोविन्द सिंह जी ने उसे पाँच तीर, एक निशान साहिब, एक नगाड़ा और एक हुक्मनामा देकर पंजाब के लिए रवाना के दिया रस्ते में उसने अपने दल का विस्तार करना सुरु कर दिया था और गुरु जी के साथ हुए अत्याचारों का बदलना लेने की लिए उत्सुक था दिहली के समीप सही खजाना लूटा और सेना को मजबूत किया ।
फिर बन्दा हजारों सिख सैनिकों को साथ लेकर पंजाब की ओर चल दिये। उन्होंने श्री गुरु तेगबहादुर जी का शीश काटने वाले जल्लाद जलालुद्दीन का सिर काटा। फिर सरहिन्द के नवाब वजीरखान का वध किया। जिन हिन्दू राजाओं ने मुगलों का साथ दिया था, बन्दा बहादुर ने उन्हें भी नहीं छोड़ा। इससे चारों ओर उनके नाम की धूम मच गयी।
बाँदा बहादुर गुरु जी के छोटे पुत्रों को दीवार में चिनवाने वाले सरहिन्द के नवाब से बदला लेने के लिए उतावला था जेसा की गुरु जी के चारों पुत्र बलिदान हो चुके थे। बंदा सिंह बहादुर के पराक्रम से भयभीत मुगलों ने दस लाख फौज लेकर उन पर हमला किया और विश्वासघात से 17 दिसम्बर 1715 को उन्हें पकड़ लिया। उन्हें लोहे के एक पिंजड़े में बन्दकर, हाथी पर लादकर सड़क मार्ग से दिल्ली लाया गया। उनके साथ हजारों सिख भी कैद किये गये थे। इनमें बन्दा के वे 740 साथी भी थे, जो प्रारम्भ से ही उनके साथ थे। युद्ध में वीरगति पाए सिखों के सिर काटकर उन्हें भाले की नोक पर टाँगकर दिल्ली लाया गया। रास्ते भर गर्म चिमटों से बन्दा सिंह बहादुर का माँस नोचा जाता रहा।
काजियों ने बन्दा और उनके साथियों को मुसलमान बनने को कहा; पर सबने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया।
दिल्ली में आज जहाँ हार्डिंग लाइब्रेरी है,वहाँ 7 मार्च 1716 से प्रतिदिन सौ वीरों की हत्या की जाने लगी।
एक दरबारी मुहम्मद अमीन ने पूछा – तुमने ऐसे बुरे काम क्यों किये, जिससे तुम्हारी यह दुर्दशा हो रही है। बन्दा ने सीना फुलाकर सगर्व उत्तर दिया – मैं तो प्रजा के पीड़ितों को दण्ड देने के लिए परमपिता परमेश्वर के हाथ का शस्त्र था। क्या तुमने सुना नहीं कि जब संसार में दुष्टों की संख्या बढ़ जाती है, तो वह मेरे जैसे किसी सेवक को धरती पर भेजता है।
बन्दा से पूछा गया कि वे कैसी मौत मरना चाहते हैं ? बन्दा ने उत्तर दिया, मैं अब मौत से नहीं डरता
; क्योंकि यह शरीर ही दुःख का मूल है। यह सुनकर सब ओर सन्नाटा छा गया। भयभीत करने के लिए
उनके पाँच वर्षीय पुत्र अजय सिंह को उनकी गोद में लेटाकर बन्दा के हाथ में छुरा देकर उसको मारने
को कहा गया।
बन्दा ने इससे इन्कार कर दिया। इस पर जल्लाद ने उस बच्चे के दो टुकड़ेकर उसके दिल का माँस
बन्दा के मुँह में ठूँस दिया; पर वे तो इन सबसे ऊपर उठ चुके थे। गरम चिमटों से माँस नोचे जाने के कारण
उनके शरीर में केवल हड्डियाँ शेष थी। फिर भी आठ जून, 1716 को उस वीर को हाथी से कुचलवा दिया गया। इस प्रकार बन्दा सिंह बहादुर अपने नाम के तीनों शब्दों को सार्थक कर बलिपथ पर चल दिये।
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